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________________ (देव शिल्प बिषीधिका अर्हन्तादि अथवा मुनियों की समाधि के स्थल को निषीधिका कहा जाता है। दूसरे शब्दों में इसे निषिद्धिका भी कहते हैं जिसका अर्थ है निषिद्ध स्थल । सामान्यजनों का यहां साधारणतया सुगम आबागगन नहीं होता। भगवती आराधनाकार आचार्य शिवार्य जी का उल्लेख है कि निषोधिका ऐसे प्रदेश में हो जो कि एकान्त स्थल हो, अन्य जनों को साधारणतः दृष्टि में न आये । यह प्रकाश सहित होना चाहिये। यह नगर से कुछ दूर हो तथा विस्तीर्ण, प्रासुक एवं दृढ़ होना चाहिये। यह स्थान चींटी आदि कीटों से मुक्त हो, छिद्र रहित सथा घिरा हुआ न हो । यह स्थल विध्वस्त, टूटी बास्तु न हो तथा नमी रहित हो। निषाधिका समतल भूमि पर होना आवश्यक है । स्थल जन्तु रहित होना चाहिये। मुनिगण ऐसे स्थल का चयन करने के उपरान्त उराका प्रतिलेखन करते हैं अर्थात् पीछी से उस स्थल को साफ करते हैं। चातुमास योग के प्रारंभ काल में तथा ऋतु प्रारंभ के समय सभी साधुओं को मह निसा अवशान का नि: निषधिका निर्माण की दिशा आचार्यों ने निषीधिका का स्थान क्षपक की वसतिका (मुनियों का विश्राम स्थल) से नैऋत्य, दक्षिणा अथवा पश्चिम दिशा में होना शुभ एवं कल्याणकारक बताया है। विभिन्न दिशाओं में निर्मित निषीधिका का फल निम्नलिखित रूप से दर्शाया गया है : दक्षिण दिशा में - संघको सुलभता से आहार प्राप्ति पश्चिम दिशा में - संघ का सुगम विहार, पुस्तक एवं उपकरणादि की समयानुकूल प्राप्ति नैऋत्य दिशा में - संघ के लिए हितवर्धक, बोधि एवं समाधि का कारण आग्नेय दिशा में संघ में वातावरण दूषित, साधुओं में अभिमा की स्पर्धा वायव्य दिशा में संघ में कलह एवं फूट का वातावरण निर्माण की संभावना ईशान दिशा में - व्याधि एवं आपसी खींचातानो का वातावरण निर्माण उत्तर दिशा में - मुनि मरण अतएव निषाधिका का निर्माण वसतिका के दक्षिण, नैऋत्य अथवा पश्चिम हो करना शुभ है। अन्यत्र निषोधिका कदापि न बनायें। * -------------------- गलती आराधन्ताम् | १९६-९७०/१७३५.भ.31/3./१४३/३२६-१
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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