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(देव शिल्प
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निषीधिकाकीपूज्यता निर्वाण भूगि को निषधिका कहा जाता है। निर्वाण भूमि से जो भायें सिद्ध पद्य को प्राप्त करते हैं वे उस शूमि को भी पूज्य बना देते हैं। प्राचीनतम ग्रन्थों में भी षिधिका को महत्वपूर्ण स्थान देते हुए उसे पूज्य कहा गया है।
आंतेम तीर्थंकर वर्धमान स्याभी के प्रथम गणधर गौतमस्वामी कत प्रतिक्रमण ग्रंथों में उन्होंने स्पष्ट कहा है - सिटु अर्थात् निषीधिका को नमस्कार है, अरहंतों को नमस्कार है सिद्धों को नमस्कार है।
आचार्य प्रभाचन्द्र ने संस्कृत टीका में निषोधिका के सत्रह अर्थों में इसका अर्थ सिद्ध जीव, निर्माण क्षेत्र तथा उनके आश्रित आकाश प्रदेश किया है ।** गाथा का अर्थ इस प्रकार है:
अर्थात सिद्ध, सिद्ध भूमि, सिद्ध के द्वारा आश्रित आकाश के प्रदेश आदि निषीधिकाओं की में सदा वन्दना करता हूँ।
महान आचाई कुन्दकुन्द कृत षटप्रामृत की टीका में श्रुतसागर सूरि # का काथान दृष्टव्य है:
जो लोग देव, शास्त्र, गुरु की प्रतिगा एवं नियोधिका को पुष्प आदि रो पूजन करने के प्रतिष करते हैं, वे पाप करते हैं तथा उस पाप के प्रभाव से वारकादि दुर्गतियों में पतित होते हैं।
आचार्य नेमिचन्द्र ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रतिष्ठा तिलक शास्त्र में निषाधिका की यथोन प्रतिष्ठा करके उसकी पूजन करने का रपट निर्देश दिया है।
निषीधिका स्थल भी जिनालय की भांति ही पूज्य स्थल है अतएव इराकी पूजयता में किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिये।
वर्तमान काल में निषीधिका दक्षिण भारत में कोल्हापुर, भोज, नांदणी, शेड्याल, रायबाग, तेरदाल, अक्किदाट, में निषाधिकायें हैं। कर्नाटक में श्रवणबेलगोला में चन्द्रगिरि पर्वत पर आचार्य श्री भद्रबाहु स्वाभी की निषोधिका है।
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*णमोत्थुदे गिनीधिए प्रमोत्धु दे अरहंत **सिखाय सिद्ध भूमी सिखाण समाहिझो पालो देसी। एयालो अण्णाओ जिसीहीयामोसया वन्दे ।। #देवहं सत्त्वहं मुणियरह जो विद्येसु करे।। जियम पाउ होइ तसु संसारु भइ।। श्रुत सागर शूरिकृत भालार्थ · देव शास्त्र का प्रतिमासु फिलीपिकासुरमुष्पादिषिः जादिषु लोकाटेषं कुर्गतित ते पापं भवान्त, लेन पापेन तरकादीप्तवित इति ज्ञातव्यम् । (त्रि म.पु.पृ १२.१४