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________________ (देव शिला (३३५) वसतिका निर्माण के लिये दिशा निर्देश मुनियों के ठहरने का स्थान मन्दिर परिसर में ही बनाया जाना हो तो इसे मन्दिर के उत्तर, दक्षिण, आग्नेय अथवा पश्चिम भाग में बनाया जाना चाहिये । इस स्थान में वायव्य कोण में धान्यगृह की स्थापना कर सकते हैं लेय को में हुरिों के लिये गौ के नारे के सारे बनाने चाहिये। ईशान कोण में पुष्प वाटिका बनायें ताकि संघस्थ त्यागीगण पूजा-अर्चना के लिये पुष्प संचय कर सकें। वसतिका के नैऋत्य भाग में भारी सामा-| का कक्ष बायें । अग्रभाग में अर्थात् पूर्व में यज्ञशाला बनाना चाहिये। पश्चिमी भाग में जल स्थान बनायें। आगे के भाग में शिक्षण के लिये पाठशाला तथा व्याख्यान भवन का निर्माण किया जा सकता है। वसतिका अथवा त्यागी भवन के दक्षिणी भाग में साधुओं के ठहरने के कक्ष बनाना चाहिये। नैऋत्य भाग के कक्ष में संघ नायक आचार्य श्री के लिये कक्ष बनायें। * दो एवं तीन मंजिल की वास्तु का निर्माण मट अथवा त्यागी भवन के लिये किया जा सकता है। सामने के भाग में सुशोभित बरामदा बनायें तथा उसके आगे कटहरा बनायें। ऊपर की छत खुली रखों* वसतिका का प्रवेश पूर्व अथवा उत्तर अथवा ईशान में होना चाहिये। धरातल का ढलान भी इन्हीं दिशाओं में करें । दक्षिणी दीवालों में खिड़की, दरवाजे अत्यंत आवश्यक हों तभी बनाएं। वसतिका के कक्षों को निर्माण इस प्रकार करना चाहिये कि किसी भी कक्ष में ऊपरी बीग बैठने के अथवा शयन के स्थान पर न आये। द्वार एवं बाहरी परिसर के निर्माण में वेध दोष का परिहार अवश्य करें। वास्तु निर्माण के सभी नियम वसतिका के निर्माण के लिये भी पालन करें। वसतिका निर्माण में सादगी होगा अत्यंत आवश्यक है। भवन की निर्माण शैली मन्दिर अथवा धर्गशालानुमा होना चाहिये न कि होटल अथवा आरामगाहनुमा । यह स्मरण रखना अत्यंत आवश्यक है कि वसतिका त्यागी व्रतो संयमी साधुओं के ठहरने के लिये है न कि गृहस्थों के विश्राम के लिये। अतएव इसमें किसी भी प्रकार से विलासिता श्रृंगार अथवा कामुकता की झलकमात्र भी नहीं आना चाहिये अन्यथा वसतिका निर्माण का उद्देश्य ही नष्ट हो जायेगा। वसतिका की रंगयोजना में केवल सफेद रंग हो करना चाहिये। फीके रंगों का भी प्रयोग किया जा सकता है। गाढ़े रंगों का प्रयोग वसतिका में न करें। वसतिका में सजावट के लिये ऐसी कोई भी चित्रकारी आदिन करें जो ध्यान में विपरीत वातावरण निर्माण करती हो। प्राचीनकाल में वसतिका का निर्माण घास-फूस अथवा मिट्टी से भी किया जाता था। मूल भावना सादगी की थी। वर्तमान युग में ऐसा करना अनुपयुक्त एवं अव्यवहारिक प्रतीत होता है। गुफा, कंदरा आदि में ध्यान करना तथा भीषण वनों के मध्य रहता विभिन्न कारणों से संभव नहीं हो पाता। अतएव मुनिगणों के लिये वसतिका का निर्माण करना उपयोगी है। ------------ --------- *प्रासादस्योत्तरे याम्प्ये थाग्नौ पश्चिमेऽपि वा। यतीनाम'श्रम कुर्या-म तद्वित्रिभूमिकम् ।। प्रा. मं.८/३३ कोष्लागारं च वायव्ये वान्हकोणे महागसम् पुष्पोह तथेशाने नैऋत्तो पात्रमायुधम्॥ प्रा. म. ८/३५ लिथिरिक्तां कुजं धिषणयं रविदं विधं तथा । दयतिथि च गण्डान्तं घरभोपग्रह त्यजेत् ॥ प्रा. गं. ८१३९ "विशालमध्ये षड्दारु: पट्टशालाग्रे शोभिता। मत्सधारणमग्रे च तल पांगेका।: प्रा.मं. ८३४
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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