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देव शिल्प
(३३४) वसतिका एवं निषाधिका प्रकरण
वसतिका ___ गृह त्याग करके संयम मार्ग पर चलने वाले साधुगणों के लिये ठहरने के स्थान वसतिका म से जाने जाते हैं। ये स्थान तिर्यच शो.. पक्षियों के आदागमा से पता होने तथा मौसम की विपरीत स्थितियों से सुरक्षित होना चाहिये। ये स्थान साधुगणों की चर्या, ध्यान, अध्ययन एवं तपस्या के लिये अनुकूल होना आवश्यक है।
साधुगण सामान्यतः मन्दिर के समीप ही स्थित साधु निवास अथवा धर्मशाला भवनों में ठहरते हैं। सामान्यतः साधुगण एक स्थान पर लम्बे समय तक नहीं ठहरते हैं। सिर्फ चातुर्मास अवधि में चार माह ठहरते हैं। ऐसी स्थिति में साधुगणों की चर्या ध्यान आदि क्रियाएं निर्वेिच्न रुपेण चलती रहें, ऐसी व्यवस्था रखना पड़ती है। ऐसे भवन जि-में साधओं के ठहरने की व्यवस्था रखी जाती है वसतिका कहलाते हैं। इन्हें त्यागी भवन या मुनि निवास भी कहते हैं।
तीर्थक्षेत्रों में मन्दिर पारेसर में ही ऐसे भवनों का निर्माण किया जाता है। शहरों अथवा ग्रागों में प्राचीन काल से ही ऐसे मन्दिरों का निर्माण किया जाता है जो नगर के बाहरी भाग में स्थित होते थे इनमें गन्दिर परिसर में ही उपयन तथा साधु एवं धर्मात्माजनों के ठहरने के लिये धर्मशाला शैली के भवन बनाये जाते हैं। इन भवनों वाले परिसर को नरिसयां कहा जाता है । उत्तर-पश्चिम भारत में ये नसियां सर्वत्र दृष्टिगोचर होती हैं।
वसतिका का सामान्य स्वरूप वसतिका में प्रवेश एवं निर्ग सुखपूर्वक निराबाध हो राके । मजबूत दीवार एवं द्वारयुक्त होना आवश्यक है। ग्राम के बाहर होना इसकी प्रमुख आवश्यकता है। मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका अर्थात् चतुर्विध संघ लथा बाल, वृद्ध सभी वहां आ जा सकें ! भूमि समतल होना श्रेष्ट है। ग्राम के अन्त में अथवा बाह्यभाग में वसतिका का निर्माण किया जाता है।*
वसतिका की मूलभूत आवश्यकतायें ____4. वसतिका का स्थान खुली एवं संसक्त स्थानों से पर्याप्त दूर होना अत्यन्त आवश्यक है। ऐरो स्थान जो गन्धर्व नृत्य, गायन अथवा अश्व शालाओं के समीप हैं अथवा जहां कलाप्रेय अशिष्ट जन रहते हैं, वसतिका के लिये अनुपयुक्त हैं। राजमार्ग तथा जनोपयोगी बाटिका अथवा जलाशय के सगीप भी वसतिका का निर्माण अनुपयोगी है । मूल भावना यह है कि वसतिका का स्थान ध्यान में बाधक न हो। **
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*(-आ./मू/६३६-६३८) *"(भ. आ.//६३३-६६३४ रा.वा./९/६/१५/५९७ बो.पा./टी./५७/५२०/२०)