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(दव शिल्प)
(२१० ध्वजा लगाने के स्थान शिल्प रत्नाकर ग्रन्थकार कहते हैं कि चिन्ह रहित शिखर (कलशहीन) तथा ध्वजहित देताला अहवागी हो जाते हैं। अतापत बिना कलश का शिखर न बनायें तथा बिना पताका (ध्वजा) के मन्दिर न बनायें। * पुर, नगर, कोट, रथ, राजगृह, वापी, कूप, तालाब में भी ध्वजा लगाना चाहिये ताकि दूर से ही इनकी पहचान हो सके।
मंदिर में पताका लगाने का स्थान पताका लगाने का स्थान मन्दिर में शिखर के ऊपरी भाग में निर्धारित किया गया है। वहां पर ध्वजादंड का रोपण करके उसमें ध्वजा लगाना चाहिये।
ध्वजा लगाने का स्थान ईशान दिशा में लगाना चाहिये। चतुर्मुखी प्रासाद में किंचित ईशान दिशा में ध्वज दण्ड लगाना चाहिये। ** ईशान दिशा में लगे ध्वजा से राज्य में वृद्धि तथा राजा प्रजा दोनों को आ-iद होता है।
ध्वजा का आकार एवं निर्माण विधि बारह गुल लम्बी और आठ अंगुल चौड़ी मजबूत कपड़े की पताका बनाना चाहिये।
प्रासाद गण्डन कार ने ध्वजा का मान अन्य रुपेण किया है। ध्वजादण्ड की लम्बाई के मान के समान ध्वजा की लम्बाई करें तथा लम्बाईका आठवां भाग चौड़ाई रखें। यह अनेक वर्ण के वरत्रों की बने तथा अग्रभाग में तीन था पांच शिखाएं बनाना चाहिए -
ध्वजा का कपड़ा श्वेत, लाल, श्वेत, पीला, श्वेत, काला हो तथा फिर उसी क्रम से इन्हीं रंगों वाला हो। इस ध्वजा में चंद्रमा, माला, छोटी घंटिया, तारा आदि नाना प्रकार के चित्र से सजायें 1 23
कपड़े से बनायी गयी ध्वजा सुखदायक, लक्ष्मीदायक, यशकीर्ति वर्धक होती है। राज, प्रजा, बाल, वृद्ध, पशु सभी के लिये समृद्धिकारक होती है।
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*निश्चिन्हं शिखरं दृष्ट्वा प्वजाहीनं सुरालयं । असुशवासमिच्छन्ति ध्वजाही न कारयेत् ।।शि २.५/५०२) निष्पल्लं शिवरं रक्षता ध्वजहीने सुरालये । असुरावासमिच्छन्ति जहीनं न कारयेत् ।(ग्रा. मं. ४ / ४८) पुरेव नगारे कोटे श्ये राजगृहे तथा । वापीकूप तड़ागेषु प्रजाः कार्याः सुशोभनाः (मा. मं. ४/ ४७) *चतुर्मुरटे तटों तक्ष्य प्रामाद सर्व कामदे। ईशान दिशामाश्रित्य प्वजा दण्ड निवेशनम् ।। शि. र५/९८) ईशच्या कुरुते किंचित् स्थपकः स्थापकः सदा । राज्यदः स्थले वृद्धिः प्रजा सौजन्दति ।। हस्तत्रिंभाला विस्तीर्णस्यहस्तायतदैः । वस्त्रोक्तम सुसंलिष्टे प्वज निर्मापयेच्छुभम् ।। . वजादण्ड प्रमाणेन देयष्टांशेन विस्तरे। नानावत्रविचित्राये स्त्रिपंचायशिखोत्तमा ।। प्रा. पं. ४/४६ # सितं २th सितं पित्तं सितं कृष्ण पुजः पुनः । यावत्प्रासाद दीर्घत्वंता उत्संयइटोतकपात ।। रन्द्रार्थचन्द्र मुक्तास्त्रक किंकिणी तारकारिभिः । जाजा भद्रप ठपश्च चित्र पत्र विचित्रवेत् ।।