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देव शिल्प
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गर्भगृह में प्रतिमा का प्रमाण
गर्भगृह की महिमा उसमें स्थित जिन प्रतिमा के कारण है। गर्भगृह की चौड़ाई इस प्रकार रखें कि चौड़ाई के दस भाग में गर्भगृह बनायें तथा दो दो भाग की दीवार बनायें ।
गर्भगृह की चौड़ाई के तीसरे भाग के मान की प्रतिमा बनाना उत्तम है। इस मान का दसवां भाग घटा देवें तो मध्यम मान की प्रतिमा का मान आयेगा। यदि पांचवां भाग घटा देवें तो कनिष्ठ मान आयेगा। *
द्वार के अनुपात में प्रतिमा के आकार की गणना
यह गणना अनेक प्रकार से की जाती है। माप उत्तरंग से नीचे तथा देहली के ऊपर का गणना की विधियां इस प्रकार हैं।
लेना चाहिये
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१.
द्वार की ऊंचाई के आठ या नौ भाग करें। ऊपर का एक भाग छोड़ देवें। शेष भाग में पुनः तीन भाग करें। उनमें से एक भाग की पीठिका तथा दो भाग की प्रतिमा बनाना चाहिये | **
२. द्वार की ऊंचाई के बत्तीस भाग करें। उनमें १४, १५, १६ भाग के मान की प्रतिमा खड्गासन में बनायें | पद्मासन मूर्ति / बैठी मूर्ति १४, १३, १२ भाग की बनाना चाहिये ! # क्षीरार्णव अ. ११ एवं वसुनन्दि श्रावकाचार का मत
३.
द्वार की ऊंचाई के आठ भाग करें। ऊपर का एक भाग छोड़ दें। शेष सात भाग के तीन भाग करें। उनमें दो भाग की प्रतिमा तथा एक भाग की पीठ (पबासन) बनायें ।
४. द्वार की ऊंचाई के सात भाग करें। ऊपर का एक भाग छोड़ दें। शेष छह भाग के तोन भाग करें। दो भाग की प्रतिमा तथा एक भाग की पीठ रखें।
५.
द्वार की ऊंचाई के छह भाग करें। ऊपर का एक भाग छोड़ दें। शेष पांच भाग. के तीन भाग करें। ऊपर के दो भाग की प्रतिमा तथा एक भाग की पीठ बनायें। यह कायोत्सर्ग प्रतिमा का मान है। प्रासाद की चौड़ाई का चौथाई भाग प्रमाण प्रतिमा रख सकते हैं।
६.
७.
द्वार की ऊंचाई के आठ भाग करें। उसमें ऊपर के एक भाग को छोड़ देवें। नीचे के सातवें भाग के पुनः आठ भाग करें। इसके सातवें भाग में भगवान की दृष्टि रखना चाहिये। अर्थात् द्वार की ऊंचाई का चौसठ भाग करके उसके पचपनवें भाग में भगवान की दृष्टि रखना चाहिये। ## द्वार की ऊंचाई के नौ भाग करें। इसके सातवें भाग में पुनः नौ भाग करें। सातवें भाग की गणना नीचे से करें अर्थात् नीचे के छह तथा ऊपर के दो भाग छोड़ देवें। इस प्रकार सातवें भाग के नौ भाग में से सातवें भाग में प्रतिमा की दृष्टि रखना चाहिये। इस प्रकार इक्यासी भाग में से इकसठवें भाग प्रतिमा की दृष्टि आना चाहिये। $
८.
इनके अतिरिक्त स्फटिक, रत्न, मूंगा अथवा सुवर्ण आदि बहुमूल्य धातु की प्रतिमा रखने के लिये यह आवश्यक नहीं है। ये प्रतिमाएं अपनी भावना एवं क्षमता के अनुरूप रखना श्रेयस्कर है। $$
*प्रा. मं. ४/४* प्रा. मं. ४/५ #प्रा. मं. ४ / २, ##व. सा. ३ / ४४ प्रा. मं. ४/५, $ वसुनन्दि श्रावकाचार (व. सा. पृ१३५), $$ व. सा. ३/३९