SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (देव शिल्प उत्तरंग द्वार शाखा के ऊपर का मथाला (ऊपरी भाग) उत्तरंग कहलाता है। यह भाग सिर के ऊपर वाला भाग है । देहरी या उदुंबर नीचे रहती है जबकि उत्तरंग ऊपर रहता है। उत्तरंग की ऊंचाई द्वार की देहरी की ऊंचाई रो सवाई रखना चाहिये। उखरंग की रबला उत्तरंग की ऊंचाई के इकोस भाग करें। उनमें से ढाई भाग को पत्र शाखा एवं त्रिशाखा बनायें। इसके ऊपर तीन भाग का मालाधर, पौन भाग की छत्री, पौन भाग की फालना, सात भाग की रथिका (गवाक्ष), एक भाग का कण्ठ और छह भाग का उद्गग बनायें । इस प्रकार का उत्तरंग। बना-[[ मन्दिरकी शोभा में वृद्धि तो करता ही है साथ ही पुण्यवर्धक भी है।* प्रासाद के गर्भगृह में जिरा देवता की प्रतिमा की स्थापना की गई हो उस देव की मूर्ति द्वार के उत्तरंग में बनाई जा| चाहिये। शाखाओं में देय परिवार का रुप बनाना चाहिये। जिनेन्द्र प्रभु के गन्दिर में जिन प्रतिमा उत्तरंग में लगायें। अनेकों स्थानों पर गणेश प्रतिमा को गणेश के अतिरिक्त अन्य मंदिरों में भी विधननाशक के रूप में उत्तरंग में स्थापित किया जाता है, इसमें कोई हानि नहीं है। ऐसा करण| मंगलकारक है।** उदगग माथिका मालाधर शाखा उत्तरंग . - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - *उटु-बरसपादन उत्तरंग विनिर्देिशेत्। तदुच्छ्रयं यं विभजेत भाग अर्थक विंशति ।। पत्र शाखा निशाखा च द्धि सार्श तु कारयेत्। मालाधरं च विभागं कर्तव्यं चाभदक्षिणे। ऊर्वे घाधकः पादोन पादोना फालना तथा। रथिका सराभागाश्च भागैकं कण्ठं भवेत्। . षड्भागमुसेधं कार्य मुदगमं च प्रशस्यते। इशं कारयेत् प्राज्ञाः सर्वयज्ञफलं भवेत॥ वास्तु विद्या अ. ६ **घरय देवर यया गतिः मैव कार्योत्तरंगके । शाखायां च परिवारो गर्णशश्चोत्तरंग ।। प्रा. म.३/६८
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy