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________________ जलपूर्ति के लिये कुंआ अथवा बोरवेल बनवाना आवश्यक होता है। ऊपर भी ओवरहैड पानी की टंकी बनायी जाती है। दोनों ही आग्नेय में न बनायें। व्यक्त अव्यक्त प्रासाद का विचार प्रारंभ में ही कर लेना आवश्यक है। जिन देवों के मन्दिर सांधार अथवा अव्यक्त बनाना आवश्यक हो, उनके मन्दिर व्यक्त न बनायें। ऐसा करने से मन्दिर एवं प्रतिमा का अतिशय समाप्त हो जायेगा। गर्भगृह को भी तोड़कर हाल में बदलने का फैशन चल पड़ा है। आचार्य श्री ने इसका स्पष्ट निषेध किया है। जिन मन्दिरों में गर्भगृह को तोड़ा गया है वहां पर निरंतर अनिष्टकर घटनाएं घटित होती है। शिल्पकार के साथ ही गर्भगृह तुड़वाने वाले कार्यकर्ता एवं समाज इसके विपरीत परिणामों को वहन करते हैं। प्राचीन पद्धति से मन्दिर निर्माण करना अत्यंत जटिल एवं व्यय साध्य होने से आजकल नगरों में अल्पस्थान पर मन्दिर बनायें जाते हैं तथा आवश्यकता होने पर ये मन्दिर बहुमंजिला भी बनाये जाते हैं। इनका निर्माण करते समय सामान्य वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों का पालन करें। मन्दिर का धरातल सड़क से नीचा न हो। प्रवेश उत्तर या पूर्व से ही रखना आवश्यक है। ३.देवालय प्रम देवालय प्रकरण में विविध प्रकार के जिनालयों का निर्माण किस प्रकार किया जाये, इस हेतु उपयोगी निर्देश दिये गये हैं। भगवान जिनेन्द्र की धर्मसभा का नाम समवशरण है। इसकी कल्पना करके समवशरण मन्दिर बनाये जाने की प्रथा है। सभी स्थानों पर मन्दिर के समक्ष मानस्तंभ का निर्माण किया जाता है। यह पद्धति प्राधीन है। देवगढ़ के कलात्मक मानस्तम्भ विश्व प्रसिद्ध हैं। मान स्तंभ की ऊंचाई मूलनायक प्रतिमा के बारह गुने के बराबर तथा मन्दिर के ठीक सामने होना आवश्यक है। मानस्तंभ का निर्माण देखा देखी में न करें न ही शोभा के लिये इधर उधर बनायें। विशेष स्मृति के लिए कीर्तिस्तंभ का निर्माण करना उपयुक्त है। जैनधर्म में ग्रह कोप निवारण के तीर्थंकरों की पूजा करने का निर्देश मिलता है, उसी के अनुकूल नवग्रह मन्दिर भी बनाये जाते हैं। सूर्य ग्रह की शांति के लिये पद्मप्रभ एवं शनि के प्रकोप की शान्ति के लिए मुनिसुव्रतनाथ स्वामी की आराधना करना उपयोगी है। पंच परमेष्ठी का वाचक ॐ तथा २४ तीर्थंकरों का सूचक हीं बीजाक्षर में तीर्थंकर स्थापना करके भी मन्दिर बनाये जाते हैं। हस्तिनापुर एवं इन्दौर के ॐ एवं ह्रीं मन्दिर दृष्टव्य हैं। नवदेवताओं के लिए भी पृथक प्रतिमा तथा पृथक जिनालय बनाये जाते हैं। सप्तर्षि मूर्तियां अनेकों मन्दिरों में मिलती हैं। इनके पृथक जिनालय भी बनाये जाते हैं। इसी भांति पंच बालयति जिनालय में पांचों बाल ब्रह्मचारी तीर्थंकरों की प्रतिमा स्थापित करते हैं। प्रकरण में सुगम शैली में इन सबके लिये उपयुक्त निर्देश दिये गये हैं। ये निर्देश समाज के प्रत्येक वर्ग के लिये मार्गदर्शक हैं। इसी प्रकरण में २४, ५२ एवं ७२ जिनालयों वाले मन्दिरों के लिये सचित्र निर्देश दिए गये हैं। जिनेश्वर प्रभु की वाणी की साकार रुप में आराधना सरस्वती देवी के रुप मे की जाती है। हंसवाहिनी वीणा वादिनी सरस्वती प्रतिमा के पृथक मन्दिर भी बनाये जाते हैं। इनको चौबीस जिनालयों के साथ भी स्थापित किए जाने का निर्देश दृष्टव्य है। चरणचिन्हों के लिए छतरियां सर्वत्र देखने में आती हैं।
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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