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________________ सर्वप्रथम सूत्रधार के लक्षण एवं अष्टसूत्रों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। शिल्पशास्त्रों में सूत्रधार के लक्षणों का वर्णन करने का कारण यही है कि अकुशल, धन का लालची एवं पाप से न डरने वाला शिल्पी यदि शिल्प शास्त्र से विपरीत मन्दिर एवं प्रतिमा का निर्माण करेगा तो शिल्पी, मन्दिर निर्माणकर्ता तथा प्रतिमा स्थापनकर्ता तीनों ही चिरकाल तक दुख पायेंगे। मन्दिर हेतु भूमि की आकृति, रुप, वर्ण, बाह्य शुभाशुभ लक्षण, शल्यशोधन आदि करके ही मन्दिर हेतु स्थान का निर्णय करना चाहिये। दिशा का निर्धारण चुम्बकीय सुई से करना उपयोगी है। भूमि का निर्णय करने के उपरांत उसकी आकृति एवं मान का निर्णय माननिबार न ही करें. रेखा करते समय शुभाशुभ लक्षणों का ध्यान अवश्य रखें। २.परिसर प्रकरण इस प्रकरण ने ग्रन्थ की उपयोगिता में पर्याप्त वृद्धि की है। पानी का जल बहाव ईशान की तरफ निकाले। अभिषेक जल का उल्लंघन नहीं करें साथ ही उसकी प्रणाली निर्दिष्ट दिशाओं में निकालें। आरती का स्थान आग्नेय दिशा में रखें। पूजा करने वालों की सुविधा के लिये परिसर में स्नानगृह बनायें। यह पूर्व, उत्तर या ईशान में बनायें। पूजा सामग्री तैयार करने का स्थान मन्दिर के ईशान भाग में बनायें। पूजा के वस्त्र भी यहीं बदलें। मन्दिर में प्रवेश करते समय पांव अवश्य धोयं तथा चप्पल-जूते बाहर उतारें । इन्हें भी निर्दिष्ट दिशाओं में रखें । कचर! ईशान में कदापि न रखें। मन्दिर के कर्मचारियों का कक्ष नियत स्थानों पर बनायें। तीर्थक्षेत्रों एवं संस्थाओं में कार्यालय का स्थान मन्दिर परिसर के उत्तर या पूर्व में रखना उपयुक्त है। मन्दिर की धर्मसभा में प्रवचन सत्संग के लिए उपयुक्त स्थान मन्दिर का उत्तरी भाग है। इसके दरवाजे भी उतर, ईशान, पूर्व में रखें। धर्मसभा की सजावट वैराग्यवर्धक चित्रों से करें। शास्त्र भंडार नैऋत्य दिशा में बनाना श्रेष्ठ है। मन्दिर की सजावट चित्रकारी, बेल बूटे, रुपक आदि से करें। तीर्थंकर की माता के स्वप्न, आहारदान, ऐरावत आदि चित्रों को मन्दिर में लगायें। तीर्थक्षेत्रों की प्रतिकृति, आचार्यों के चित्र आदि भी मन्दिर में लगा सकते हैं। __ इसी प्रकरण में मन्दिर के किस भाग में अतिरिक्त भूमि लेना चाहिये, इसका भी निर्देश दिया गया है। तलघर बिना जरुरत के कदापि न बनायें। विविध रंगों का प्रयोग मन्दिर में कैसे करें, इस हेतु भी निर्देश दिये गये हैं। मन्दिर में पूजा हेतु पुष्पवाटिका लगाने की दिशा भी निर्दिष्ट की गई है। मंदिर परिसर में वृक्ष कहां एवं कौन से लगायें इसका भी ध्यान रखना आवश्यक है। इमली आदि वृक्षों का निषेध किया गया है। मन्दिर प्रवेश के स्थान पर निर्मित सीढ़ियों का भी एक नियम है। इनकी दिशा उत्तर से दक्षिण अथवा पूर्व से पश्चिम की ओर चढ़ती हुई रखें। गोलाकार सीढ़ियां ठीक नहीं मानी गई हैं। सीढियों की संख्या भी विषम ही रखना चाहिये। ___ मन्दिर परिसर के चारों तरफ परकोटा अवश्य ही बनवाना चाहिये । यदि बहुत ही बड़ा परिसर हो तो भी फेंसिग लगाना ही चाहिए। परकोटे से भगवान की दृष्टि बाधित न हो, यह सुनिश्चित करें। मन्दिर प्रांगण में निर्मित की जाने वाली विभिन्न वास्तु संरचनाओं का निर्माण भावावेश में अथवा दानदाता की मर्जी से नहीं करें। जिस दिशा में शिल्प शास्त्र में निर्देश किये गये हैं, वहीं रचनाएं करें। मन्दिर परिसर की शुचिता स्थायी रखने के लिये इसे व्यापारिक भवनों से मुक्त रखना आवश्यक है।
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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