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दिव शिल्प
द्वारका आकार द्वार का आकार चौकोर आयताकार रखें। त्रिकोण, सूप के आकार का, वर्तुलाकार दरवाजा न बनवायें। दरवाजे दो पलड़े के ही बनवायें। एक पलड़े का दरवाजा न बनवायें । द्वारों का आकार विषम नहीं होना चाहिये !
विषमाकार दरवाजों कापरिणाम
द्वार की आकृति
परिणाम त्रिकोणाकृति
स्त्री दुःख रूपाकार
धन नाश वर्तुलाकार
कन्या जन्म धनुषाकार
कलह गुरजाकार
चन नाश अतएव द्वार चौकोर एवं सम प्रमाण ही बनायें।
हार के आकार का अनुपात प्राचीन वास्तु शास्त्रों में मन्दिर के द्वार का प्रमाण मन्दिर के विस्तार के अनुपात में बताया गया है। मन्दिर का मूल गर्भगृह वर्गाकार समचतुरस्र बनाया जाता है। राहो अनुपात में निर्माण किए गरो द्वार शोभावर्धक होने के साथ ही मंगलकारी भी होते हैं। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि मन्दिर में स्थापित देव प्रतिमा की दृष्टि द्वार के विशिष्ट स्थान पर ही आना चाहिये । इसका विशेष उल्लेख पृथक प्रकरण में दिया गया है।
द्वार की ऊंचाई के मान की गणना द्वार की ऊंचाई का एक निश्चित मान मन्दिर की ऊंचाई से होता है ।
सामान्यतया द्वार के अनुपात में ऊंचाई से चौड़ाई आधी रखने का विधान है | नागर, भूमिज, द्राविड़ प्रासादों में यही अनुपात मान्य है। विशेष गणना के लिए अनलिखित सारणियां दृष्टिगत रखना चाहिये।
नागर जाति के मन्दिरों का मान दृष्टव्य है। इसका १० वां भाग कम करें तो स्वर्ग के तथा अधिक करें तो पर्वत के आश्रित मन्दिर के द्वार का मान होता है।
उत्तम द्वार का मान - ऊंचाई से आधी चौड़ाई रखें। मध्यम द्वार का मान-उत्तम द्वार की चौड़ाई रो एक चौथाई कम रखें। कनिष्ठ द्वार का मान - मध्यम मान की चौड़ाई से एक चौथाई कम रखें।
शिवालय में ज्येष्ठ द्वार, मनुष्यालय में कनिष्ठ द्वार तथा सर्व देवों के मन्दिर में माध्यम द्वार रखना चाहिये । भूमिज एवं द्राविड़ प्रासादों के द्वार के गान किंचित पृथक हैं।