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(देव शिल्प
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१०) सुरक्षा की दृष्टि से गर्भगृह एवं मुलद्वार के अन्दर चैनल गेट लगा सकते हैं किन्तु इनसे भगवान की दृष्टि अवरोध नहीं होना चाहिए।
१५) यथासंभव मन्दिर में चिटखनी, सांकल, कब्जे आदि पीतल के लगायें, लोहे के न लगाएं।
१२) बिना द्वार का मन्दिर कदापि न बनायें। यह समाज के लिए अशुभ, हानिकारक है तथा नेत्ररोगों की वृद्धि का निमित्त होगा ।
१३) दरवाजे एवं चौखट एक ही लकड़ी के बनवायें । लोहे के दरवाजे अथवा शटर न बनवायें।
१४) एक दीवाल में तीन दरवाजे या तीन खिड़की न रखें। एक दरवाजा एवं तीन खिड़की रख सकते हैं।
१५) पूरी वास्तु में दरवाजे सम संख्या में हों किंतु दशक में न हों । २, ४, ६, ८, १२, १४, १६ हों किन्तु १०, २०, ३० न हों ।
द्वार देध
द्वार वास्तु का एक प्रमुख अंग है। द्वार से ही वास्तु के भीतर आना जाना किया जा सकता है। द्वार का अपने प्रमाण में होना तो निस्संदेह आवश्यक है साथ ही द्वार के समक्ष किसी भी FI अवरोध उसमें वेध दोष उत्पन्न करता है। इराका विपरीत फल वास्तु के उपयोगकर्ता को भोगना पड़ता है। निर्माता एवं शिल्पकार दोनों को यह सावधानी रखनी आवश्यक है कि द्वारों में किसी प्रकार का वेध न हो । अग्रलिखित सारणी में द्वार वेध के परिणामों की ओर निर्देश किया गया है -
द्वार वेध के परिणाम
मुख्य द्वार के सामने वेध द्वार के नीचे पानी के निकलने से
द्वार के सामने कीचड़ जमा रहना
द्वार के सामने वृक्ष द्वार के सामने कुंआ द्वार से मार्गारम्भ द्वार में छिद्र
फल
निरन्तर धन का अपव्यय
समाज में शोक
क्यों को कष्ट
रोम
यजमान का नाश
धननाश
द्वार वेध दोष परिहार
मुख्य द्वार को ऊंचाई से दुगुनी भूमि छोड़कर यदि पेव है तो वह दोष नहीं है। यदि द्वार एवं वेध के मध्य मुख्य राजमार्ग होवे तो भी वेध का दोष नहीं माना जाता है।