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(देव शिल्प)
द्वार
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मन्दिर में प्रवेश के स्थान पर द्वार निर्माण करना चाहिये। प्रमुख प्रवेश के स्थान पर मुख्य द्वार तथा भीतर सामान्य द्वारों का निर्माण किया जाता है। मुख्य द्वार मन्दिर का प्रमुख अंग है तथा उसका निर्माण अत्यंत गंभीरता से प्रमाण सहित ही किया जाना चाहिये। द्वार का निर्माण निर्दोष करना अत्यंत आवश्यक है।
द्वार का निर्माण करते समय सामान्य नियमों का तो ध्यान रखना ही चाहिये। साथ ही मन्दिर के गर्भगृह के समसूत्र तथा आकार के अनुपात का भी ध्यान रखना आवश्यक है। गर्भगृह के आकार, प्रतिमा के आकार तथा द्वार के आकार में एक निश्चित अनुपात का होना अत्यन्त आवश्यक है। ऐसा न किये जाने पर मन्दिर तो शोभाहीन होगा ही साथ ही इसके परिणाम भी अत्यन्त भीषण होंगे। द्वारों का निर्माण कलात्मक रीति से किया जाना चाहिये किन्तु उनकी कलाकृति से उनके आकार में अन्तर न आये यह सावधानी रखें।
द्वार के लिये नियम
१) मन्दिर का मुख्य द्वार मूलनायक प्रतिमा के ठीक सामने होना चाहिये। गर्भालय का द्वार भी आगे के दरवाजे के समसूत्र में रखना चाहिये। गर्भालय एवं आगे के दरवाजों को समसूत्र में रखना शुभ एवं फलदायक है। किंचित भी न्यूनाधिक विषम सूत्र न रखें ।
२) दरवाजे के किवाड़ यदि अंदर के भाग में ऊपर की तरफ झुके होंगे तो यह मन्दिर के लिये धन नाश का निमित्त बनेगा ।
३) दरवाजे के किवाड़ यदि बाहर के भाग में ऊपर की ओर झुके होंगे तो समाज में कलह एवं रोग का कारण बनेगा ।
४) दरवाजा खोलते या बन्द करते समय आवाज निकलना अशुभ एवं भयकारक है।
५) दरवाजा भीतर की ओर ही खुलना चाहिए। अन्यथा रोग होंगे।
६) दरवाजे की चौड़ाई एवं ऊंचाई निर्धारित मान के अनुकूल रखें अन्यथा विषम परिस्थितियां जैसे- भय, अकारण चिन्ता, स्वास्थ्य हानि, अकस्मात धननाश आदि स्थितियां बन सकती हैं।
७) यदि द्वार स्वयमेव खुले या बन्द होवें तो उसे अशुभ समझें। इससे व्याधि, पीड़ा, वंशहानि के संकट समाज में आ सकते हैं।
८) यदि द्वार पत्थर का हो तो चौखट पत्थर की बनायें ।
९) दरवाजे यदि लकड़ी के हों तो लकड़ी की चौखट तथा लोहे के हों तो लोहे की चौखट
लगायें ।