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________________ (देव शिल्प) (३२६ ) दुष्पगिदिदं सिनेमानंदविद्यारस . स्वादाहलाद-सुधाम्बुधिप्लवलसद्धव्याघक्लृप्तोत्सवम् । अत्रासाद्य सपद्यवमिदशं चित्तप्रसतिं पशं, संभक्तुं पशवोऽपि सदृशमलं मुक्तिश्रियः शंफलीम् 11911 अर्थः- स्याद्वाद विरुपी रस के स्वाद से उत्पन्न आनन्द रुणे अमृत के समुद्र में तो से सुशोभित भव्य जीवों के समूह के द्वारा उत्सव किसे जाते हैं ऐसा यह शोभा से युक्त जिनमन्दिर मैंने देखा है। यहां शीघ्र ही पापों को नष्ट करने वाली परंग चिर। श्री विशुद्धता का प्राप्त कर (गनुष्यों की कौन कहे पशु भी मुक्तिरूपी लक्ष्मी की ती स्वरुप सद् दृष्टिः-सम्यग्दर्शन को प्राप्त करंग के लिय सगर्थ होते हैं ।।।।
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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