SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (देव शिल्प) १०५ मन्दिर निर्माण निर्णय यह सर्वविदित है कि जिनेन्द्र प्रभु का मन्दिर बनाना एक असीम पुण्यवर्धक कार्य हैं। अनेकानेक जन्मों के संचित पापकर्मों का नाश गन्दिर निर्माण से होता है। मन्दिर में स्थापित आराध्य देव की पूजा चिरकाल तक होती है। अन्य लोगों को भगवद् आराधना के निमित्त भूत मन्दिर की स्थापना करने से अकल्पनीय पुण्य मिलता है। यह पुण्य तभी कार्यकारी है जब मन्दिर का निर्माण आगम प्रणीत सिद्धान्तों के अनुसरण करते हुए किया जाये। स्वयं निर्णय कर यद्वा तद्वा मन्दिर का निर्माण कर देने से पूजनकर्ता को भी लाभ नहीं मिलता तथा स्थापनकर्ता का भी अनिष्ट होता है। धर्म रत्नाकर ग्रन्थ में आचार्य श्री जयसेन जी ने कथन किया है कि मन्दिर का निर्माण वास्तु शास्त्र के सिद्धान्तों के अनुरूप ही किया जाना चाहिये। ऐसे मन्दिर में भगवान की अर्चना करने वाला पुण्य का अर्जन कर दोनों लोकों में सुख भोगता है तथा परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति करता है। * मन्दिर निर्माण करने की भावना मन में आने पर सर्वप्रथम आचार्य परमेष्ठी के पास जाकर विनयपूर्वक उनसे अपने भाव प्रकट करना चाहिये। यदि संभाज को सामूहिक भावना सर्व उपयोगी मन्दिर बनवाने की हो तो पहले समाज में इस पर सहमति विचार बनाकर पुनः समाज के सभी प्रमुख जनों को परम गुरु आचार्य परमेष्ठी के पास जाना चाहिये। तदुपरांत विनयपूर्वक श्रीफल अर्पणकर अपनी भावना व्यक्त कर उनसे मार्गदर्शन लेना चाहिये। जिस नगर में मन्दिर स्थापित करना प्रस्तावित है, उसके नाम राशि का मिलान प्रस्तावित तीर्थकर की राशि से करना चाहिये। उसके पश्चात् प्रतिमा स्थापनकर्ता की राशि का मिलान करना चाहिये। इसके पश्चात् ही शुभ मुहूर्त का चयनकर मन्दिर निर्माण का कार्य आरम्भ करना चाहिये । *वास्तुक्त सूत्र विधिना प्रविधापयन्ति ये मन्दिर मदनविद्विषतश्चिरं ते । शेविष्णुविश्वरमणी रमणीयभोगा, सौख्याब्धिमध्यरचितस्थितयों रमन्ते ।। धर्म रत्नाकर / ८
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy