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________________ (देव शिल्प) स्वामी पृच्छा किसी भी भूमि पर वास्तु निर्माण का कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व यह अपेक्षित है कि वहाँ पर स्थित क्षेत्र स्वामी देवों को संतुष्ट किया जाये तथा उनकी विनय करके उनसे कार्यारम्भ करने की अनुमति ली जाये । महान आचार्य जयसेन स्वामी ने अपना आशय इस प्रकार व्यक्त किया है - * क्षेत्र में निवास करने वाले देव आदि को संतुष्ट करके यथा द्रव्य विधि पूर्वक सम्मानित करके पंच परमेष्ठी पूजन करे एवं दीनों को भोजनादि देकर संतुष्ट करे । इसके पश्चात् हो निर्माण कार्य प्रारम्भ करना इष्ट है। सिद्धचक्र, इन्द्रध्वज आदि विधान एवं पंच कल्याणक प्रतिष्ठा आदि धार्मिक प्रसंगों पर भी मंडप एवं वेदी आदि के निर्माण के पूर्व क्षेत्रपाल आदि देवों के प्रति सम्मान करते हुए उनसे आज्ञा अवश्य लेनी चाहिये।** प्रतिष्ठाचार्य एवं यजमान प्रतिष्ठादि की यज्ञ भूमि में सर्वप्रथम भूमिस्थ देवों एवं तिर्यंच, मनुष्यादि के प्रति क्षमा याचना करे तथा सम्मान सहित अनुरोध करे कि "हे क्षेत्ररक्षक देव, आप इस क्षेत्र में बहुत काल से निवास कर रहे हैं अतः स्वभावतः आपका इस क्षेत्र के प्रति असीम स्नेह है। हम इस क्षेत्र में मन्दिर वास्तु अथवा धार्मिक आवास अथवा भयन (अथवा गृह) का निर्माण कराना चाह रहे हैं। अथवा इस स्थान पर अमुक ................ धार्मिक कार्यक्रम करना चाह रहे हैं। आप इस निर्माण कार्य (अथया धर्म कार्य) को पूर्ण करने के लिये अपनी सम्मति प्रदान करें तथा हमें परिवार सहित सहयोग प्रदान करें ताकि हम यह कार्य निराकुल निर्विघ्न सम्पन्न कर सकें। इस प्रकार क्षेत्रपालादि देवों रो विनय करके विधि पूर्वक पूजनादि कर्म करें तथा भूमि शुद्धि, विधि विधान पूर्वक प्रतिष्ठाचार्य सम्पन्न करायें। तिलोय पणत्ति आदि करणानुयोग ग्रन्थों का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि मध्यलोक में सुई की नोंक के बराबर स्थान भी व्यंतरादि देवों से रहित नहीं है। ऐसी स्थिति में कोई भी निर्माण करने के पूर्व उनकी अनुमति लेना उचित ही है। इसका कारण यह भी है कि जो जीव जिस स्थान पर रहता है, उरो उससे स्नेह हो जाने के कारण वह अन्यत्र नहीं जाना चाहता # अतएव निर्माण कार्यारम्भ के पूर्व विधिपूर्वक इन देवों से अनुमति लेना तथा सहयोग के लिये विनय करना उपयुक्त ही है । लोकाचार में भी भूमि पर कार्यारंभ करने के पूर्व राजकीय अनुमति ली ही जाती है । अतएव यहाँ निवासी देवों से अनुमति लेना अथवा सहयोग की कामना करना उचित ही है। -------------------- .------- *तत्स्थान वासान् निखिलान सुराठीन् संतोष्य पंचेशः सुमण्डलेन ! पूजा विधायेतस्दीन जन्तून सम्माने वार को महात्मः ॥ जयसेन प्रतिष्ठा पाठ **अहो धरायाभिह ये सुराश्च क्षमन्तु यज्ञादि कति दन्तु। प्रीतिः पुराणा बहुवास योगात् क्षिताश्तो ऽस्मद्विनिवेदन वः ।। २१:१ जयसन प्रतिष्ठा पाट पृ पर # यो यत्र निवसन्नास्ते स तत्र कुरुते रतिः । इष्टोपदेश ४ः
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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