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(देव शिल्प
जाली एवं गवाक्ष मन्दिर में प्रकाश एवं वायु प्रवाह के लिए जाली एवं गवाक्ष (झरोखों) की रचना की जाती है। जाली की सुन्दरता से मन्दिर की सुन्दरता में अभिवृद्धि होती है।
जाली का प्रमाण द्वार की ऊंचाई के तीन भाग करें। दो भाग की जाली तथा झरोखा बनायें। जाली लम्बाई में छोटी भी हो तो दोष नहीं गाना जाता। द्वार जाली तथा गवाक्ष ऊपरी बाढ़ से एक समसूत्र बनाना चाहिये।
शि.र. ४/५४० गवाक्ष की रचना ___ गवाक्ष की रचना मंडोवर पर भी सजावट के लिए की जाती है, जिसमें अनेकों देव-देवियों के रुप बनाते हैं। इसमें जाली नहीं देकर प्रतिगाये ब-यो जाती है । गवाक्ष से मन्दिर की सुन्दरता में अभिवृद्धि होती है।
गवाक्ष के भेद गवाक्ष की शैलियों के अनुरुप उनके विभिन्न भेद होते हैं । मन्दिर निर्माणकर्ता अपने द्रव्य के अनुरुप इनका निर्माण करता है। इनके कुछ भेदों के नाम इस प्रकार है :१. त्रिपताक २. उभय ३. स्वस्तिक ४. नंदावर्तक ५. प्रियवक्रासुमुख ६. सुवक्र ७. प्रियंग ८. पदम-||म ९. दोपचित्र (चार छाद्य युक्त)
१०. वैचित्र- पांच छाद्य युक्त १०, सिंह
१२. हंस १३. मतिद १४. बुध्यर्णव १५. गरुड़
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गंडोवर के गवाक्ष