________________
ची
(देव शिल्प
२८) अन्य शुभ लक्षणों याली भूमि के फल
१. भद्रपीठ भूमि-अर्थात् कूर्म पृष्ठ भूमि- जो भूमि मध्य में ऊंची तथा चारों नोचों
और नीची हो, वह भूमि जिनालय निर्माण के लिये शुभ है। इस भूमि पर भूमि
जिला मन्दिर निर्माण करने से धन, सुख, उत्साह में वृद्धि होती है। २. प्रासाद ध्वज के आकार की भूमि उन्नतिकारक है। ३. दृढ़ भूमि धादायक होती है।
सम भूमि सौभाग्यदायक होती है। नवनीत भूमि
५. उच्च भूमि प्रतिष्ठासम्पन्न पुत्रों को देती है। ६. कुश रो युक्त भूमि तेजस्वी पुत्रदायिनी है। ७. दूर्वायुक्त भूमि वीर पुत्रदायिनी है। ८. कल युक्त भूमि धन एवं पुत्र प्राप्ति में कारण है।
शुक्ल वर्ण भूमि सर्वोन्नति, परिवार सुख, समृद्धि,संततिदायी होती है। १०. पीलवर्ण भूमि राजकीय लाभ, यश, प्रतिष्ठा सुख, शांति दायक होती है। ११. सुखद स्पर्श भूमि मनःशांति, धन, विद्या, वैभव को सहजता से देती है।
ऐसा भूमि पर शिक्षण संस्थान, जिनालय बनाना उपयुक्त है।
१२. सुगंध युक्त भूमि धन-धान्य, यशदायक होती है। विभिन्न अशुभ लक्षणों से युक्त भूमि पर मन्दिर बनाने का निषेध
भूगि चयन की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि उस पर जिस वास्तु संरचना का निर्माण किया जाये वह उपयोगकर्ता के लिए सर्वसुखदायिनी होवे । विभिन्न शास्त्रों में गृह वास्तु का निर्माण करने के लिए जो भूमि के लक्षणों का वर्णन किया गया है, वह प्रत्यक्ष परीक्षा करने में स्पष्ट अवलोकित होती है । भले ही लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई का मान हभ ठीक-ठीक निकाल लेवें, किन्तु यदि भूमि का आकार शुभ नहीं है तो हमें उपयुक्त परिणाम नहीं मिलेंगे। पाप कार्यों को किये जाने से सिर्फ आत्मा ही दूषित नहीं होती वरन आसपारा का वातावरण भी दूषित होता है। जिस भवन में निरन्तर सद्भावना, जप, तप, धर्म का वातावरण हो, उस भवन में शुद्ध पवित्र वातावरण प्रतीत होता है । यदि कोई साधक यहां साधना करना चाहे, तो उसे सुगमता होगी। इसके विपरीत ऐसा भवन जिसमें निरन्तर काम, वासना, शराब, मांस भक्षण, व्यसन इत्यादि कार्य हो रहे हैं, वहां साधना करने पर साधक की एकाग्रता नहीं आयेगी तथा भावनायें दूषित होगीं । यह प्रभाव अधर्म को स्थापित करेगा तथा धर्म को विस्थापित करेगा। अतएव शुभ भूमि पर ही मन्दिर का निर्माण करना अत्यंत श्रेयकारी होगा।
अशुभ लक्षणों से युक्त भूमि पर मन्दिर निर्माण करने से आने वाले परिणामों से बचने के लिए सर्वप्रथम धैर्यपूर्वक भूमि का चयन करें।