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________________ (दव शिल्प) जिनेन्द्र प्रसाद शिखर एवं तल विभाग की संरचना में विधिता कर.) रो प्रासादों के प्रकारों की संख्या असंख्य तक हो सकती है। नौ हजार छह सौ सत्तर प्रकार के शिखर होते हैं ऐसा वर्णन अन्य शास्त्रों में मिलता है किंतु नाम एवं सविस्तार वर्ण-1 अनुपलब्ध है।* जितनी अधिक विविधता की जायेगी, उतने आंधक प्रकार बनते जायेंगे । आचार्यों .) शैलियों के अनुरुप कुछ प्रकार के प्रासादों को उत्तम कोटि में रखा है। निम्नलिखित प्रकार के प्रासाद जिनप्रभु के लिए बनाये जायें तो अत्यंत गंगलकारी है - श्रीविजय, महापद्म, नयावर्त, लक्ष्मी तिलयः, नद, कामलहंस तथा कुंजर ।* जिनेन्द्र प्रासादों के लिये उपयुक्त श्रेष्ठ प्रासाद निम्-लिखित जातियों के प्रासाद उत्तग माने जाते हैं। इन्हीं के आधार पर चौबीस तीर्थंकरों के लिये श्रेष्ट प्रासादों को निर्मित किया जाता है :- ** १. मेरु प्रासाद २. मगर जाति के भद्र प्रासाद ३. अंतक प्रासाद ४. द्राविड़ प्रासाद ५. महीधर प्रासाद ६. लतिर जाति के प्रासाद टोपार्णव में जिनेन्द्र प्रासाद के लिए पृथक-पृथया तीर्थकारों के लिए पृथक-पृथक भेद का वर्णन किया गया है। यदि गूलनायक तीर्थंकर के नाम के अनुरुप उसी भेद का मन्दिर बनाया जाये तो यह सर्वसुखकारके होगा तथा निर्माता एवं रामाज दोनों के लिए शुभ एवं मंगलगय होगा। उत्तर भारतीय नागर जाति की शैली के प्रासादों को प्रत्येक तीर्थकर के लिए पृथक निर्देश दिया गया है। शारत्रकार उन्हें उन तीर्थकरों के प्रिय मन्दिर कहते हैं। वास्तव में तीर्थंकर प्रभु मोक्ष गमन कार चुके हैं तथा संसार, इच्छा, प्रिय अप्रिय गावों से राहेत हैं फिर भी वास्तुशास्त्र में बल्लभ प्रासाद शब्द का प्रयोग किया जाता है । यह उनके प्रासादों के भेद बताने की अपेक्षा मात्र से है। दिगम्बर एवं श्वेतांबर दोनों ही परम्पराओं में पहचान के लिए प्रतिगाके नीचे सिंहासन पीत में चिन्ह बनाया जाता है । ## ----------------- -- *व.सा.३/५," प्रा. मं. प./२/४, #व.सा. ३/११ ##चिन्हों का विवरण प्रतिभा प्रकरण में दृष्टव्य हैं।
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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