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दव शिल्प)
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मन्दिर का परकोटा
मन्दिरका निमांग जिरेन्द्र प्र के प्रणीत धमायतन का निर्माण है। जिन धर्म के द्वारा प्राणी मात्र को सुख का मार्ग मिलता है। उस धर्मायतन की रक्षा के लिये गन्दिर के चारों ओर परकोटा अथवा कम्पाउन्ड वाल बनाना चाहिये । ऐसा करके हम मन्दिर तथा अप्रत्येक्ष रुप से धर्म की सुरक्षा करते हैं।
परकोटा बनाते समय यह स्मरण रखें कि उसका आकार भी आयताकार अथवा वर्गाकार हो। परकोटे की दीवाल मुख्य मन्दिर की दीवाल से सटाकर बनायें। परकोटे एवं मन्दिर के मध्य पर्याप्त अन्तर होना चाहिये । परकोटे की दीवाल की ऊंचाई एवं मोटाई, दोनों दक्षिण में उत्तरी दीवाल से अधिक होवे। इसी भांति पश्चिमी दीवाल की मोटाई एवं ऊंचाई दोनों पूर्वो दोवाल से मोटी होवे। कुल मिलाकर नैऋत्य भाग में परकोटे की दीवाल सबसे ऊंची रखें तथा ईशान में सबसे नीची रखें।
यदेि परकोस इस तरह बनता है कि भगवान की दृष्टि राधित होती है तो झांटेवेध का परिहार करें। यदि उत्तर अथवा पूर्व में महाद्वार नहीं है तथा भगवान की दृष्टेि उत्तर या पूर्व में है तो लधुद्वार बनाकर वेध परिहार करें। द्वार पर सुन्दर कमानी बनायें। परकोटे की दीवाल विभिन्न दिशाओं में अधिक ऊंची होने का फल उत्तर
मन्दिर का धन व्यय ईशान
मन्दिर कार्यों में निरंतर विघ्न, बाधाएं
ऐश्वर्य हानि, धन हानि आग्नेय
यश प्राप्ति दक्षिण
श्रेष्ठ, शुभ नैऋत्य
समाज में धन, यशलाभ, शभ्युदय पश्चिम व.या
आरोग्य परकोटा बनाने के लिये पत्थर, ईंट आदि का प्रयोग करें। परकोटे की दीवाल पर प्लास्टर कर उस पर चूने या पेंट से पुताई करें। परकोटे पर काला रंग न लगायें न ही अत्यंत गादे, अथवा लाल, रक्त लाल. कत्थई रंग लगाएं। कोई भी रंग लगायें यह उत्साहवर्धक हो, निराशावर्धक न हो।
___ परकोटा बनाते समय ध्यान रखें कि दक्षिण में उत्तर से कम जगह खाली छोड़े। दक्षिणी भाग में कम से कम जगह खाली छोड़े। परिक्रमा के लिये लगभग ५ फुट जगह छोड़ सकते हैं।
परकोटा निर्माण से गन्दिर वास्तु न केवल सुरक्षित हो जाती है, वरन् उसका स्वरुप भी गरिमामयो हो जाता है। अपराधी तत्वों, पशुओं एवं प्रेतादि बाधाओं रो वास्तु सुरक्षित हो जाती है। अतएव मन्दिर निर्माण करते समय परकोटा अवश्य ही निर्माण करायें । तीर्थ क्षेत्रों, नसियां आदि के मन्दिरों के लिए यह परम आवश्यक है।