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दिव शिल्प
मन्दिर में जल बहाव विचार मन्दिर के धरातल से जल के प्रवाह के लिये ढलान बनाना आवश्यक होता है ताकि वर्षा आदि का जल निराबाध बह सके। मन्दिर के धरातल की सफाई आदि करने से भी जल बहता है। अतएव फर्श का ढलान भी सही दिशा में होना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। *
पूर्व, ईशान अथवा उत्तर की ओर ही जल बहाव होना वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुरुप हैं। अतएव धरातल का ढलान भी हों तीन दिशा में लग लामदायक है। पारा दिशाओं में धरातल का ढलान न रखें।
पश्चिम, वायव्य तथा नैऋत्य में जल बहाव होने से समाज के लिए निष्प्रयोजनीय व्यय एवं अर्थसंकट आता है।
दक्षिण एवं आग्नेय में जल का बहाव होने से आकस्मिक धनहानि तथा मृत्यु तुल्य काट होते हैं। नैऋत्य एवं वायव्य में जल प्रवाह रोगों को निमन्त्रण देता है।
पानी निकालने की मोरी (प्लव) मंदिर में पानी निकालने के लिए मोरो या नाली बनाना पड़ता है। यह पूर्व, उत्तर अथवा ईशान की ओर निकलना चाहिये । अन्य दिशाओं में यह अत्यंत हानिकारक है । इनके दिशानुसार परिणाम इस प्रकार हैं :- ** मोरी की दिशा परिणाम पूर्व में
वृद्धिकारक उत्तर में
धनलाभ दक्षिण में
रोगकारक पश्चिम में धनहानि ईशान में शुभ आग्नेय में अशुभ, हानिप्रद नैऋत्य में अशुभ, हानिप्रद वायव्य में अशुभ फलदायक, हानिप्रद
*पुटवेसाणुत्तरं बुवहा
ब. सा. १/९ उत्तरार्थ
** पूर्व प्लवी वृद्धिकरों धनदश्चोत्तरे तथा। याम्यां रोगप्रदो ज्ञेयो धनहा पश्चिम प्लवः ।। ईशान्ये प्रागुटकप्लव स्त्वत्यन्त बदिनोजणाम् । अन्यदिक्ष प्लयो जेष्ट २४दत्यन्त हाजिदः ।। वृहदवास्तुपाला पृ १७० श्लोक ११/ ३२