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(देव शिल्प
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अभिषेक जल
जिनेन्द्र प्रशु की प्रतिमा की पूजा का प्रमुख अंग अभिषेक क्रिया है। जल, दूध, दही, औषधि, इक्षुरस इत्यादि अमृत पदार्थों से प्रभु प्रतिमा का अभिषेक किया जाता है। इसके पश्चात शान्ति धारा की जाती है । यह अभिषेक जल गंधोदक के नाम से जाना जाता है । इसे अत्यंत पवित्र माना जाता है।'
वेदी अथवा पांडुक शिला पर प्रभु को विराजमान करने के लिए उनका मुख उत्तर या पूर्व में ही रखें। अभिषेक का जल निकलने की नाली या नलिका सिर्फ पूर्व या उत्तर दिशा में हो रखना आवश्यक है।
जिन मंदिरों की रचना पूर्व पश्चिम दिशा में है उनमें अभिषेक जल उत्तर में निकालना चाहिए। शिवलिंग वाले मंदिरों में भी इसी नियम का पालन करें। जिन मंदिरों को उत्तर दक्षि बनाया गया है उनमें नाली का मार्ग बायीं ओर अथवा दाहिनी ओर रखना चाहिए । दक्षिणाभिमुख प्रासाद की नाली बायीं ओर रखें। उत्तराभिमुख प्रासाद की नाली दायीं ओर रखें अर्थात् उत्तर मुखी मंदिर की नाली पूर्व में तथा दक्षिण मुखी मंदिर की भी नाली पूर्व में ही निकालें।
जिन मंदिरों की रचना उत्तर दक्षिण दिशा में है उनका अभिषेक जल पूर्व में ही निकाला जाना चाहिए । मण्डप में मूलनायक के बायीं ओर स्थापित देवों के अभिषेक का जल बायीं ओर निकालना चाहिए। मण्डप में मूलनायक के दाहिनी ओर स्थापित देवों के अभिषेक का जल दाहिनी ओर निकालना चाहिए । जगतो के चारों ओर जल निकालने की नाली बनाई जा सकती है। *
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गर्भगृह का अभिषेक जल निर्गम - मकर मुख
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*शुद्ध तोटे क्षुसायि दुग्ध दयामजैः सैः । सर्वाणिभिरुष्पूर्ण वात्स्स्जापटोज्जिजम् । उ.प्या. १३४ **पिर मुखे द्वारे प्रणालं शुभमुत्तर ! प्रा.म. २/३५ प्रधि पूर्वापरं यदा द्वार प्रणालं चोत्तरे शुभम् । प्रशस्तं शिवलिंगाना इति शास्त्रार्य निश्चय : ।। अप.स. १०८ जैन मुक्ता: समस्ताश्च याम्योत्तर क्रमै : स्थिटाः । दाम दक्षिण योगोन कर्तब्ध सर्वकाम्दम् ।। अ.सू. १०८ पूर्वापरास्य प्रासादे नालं सौम्य प्रकारयेत् । तत् पूर्व यान्यसाधास्ट मण्डपे वाम दक्षिण | प्रा मंजरी/५० मण्डपे ये स्थिता देवारतेषां वाचदक्षिणे। प्रणालं कारखोद धीपान जगत्यां च चतुर्दशम् ।। प्रा.मं. २/३६