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(देव शिल्प
भूमि लक्षण
जो भूमि वर्गाकार हो, दीमक रहित हो, कटी फटी न हो, शल्य कंटक आदि से रहित हो तथा उसका उतार पूर्व, ईशान अथवा उत्तर की ओर हो वह भूमि सबके लिये वास्तु निर्माण तथा मन्दिर निर्माण के लिये सुखकारक होगी। जिस भूमि में दीमक होगी यह भूमि व्याधिकारक एवं रोग वर्धक होगी। खारी भूमि में वास्तु निर्माण से निर्माता को धन हीनता का दुख भोगना पड़ता है। कटी-फटी भूमि पर वास्तु निर्माण से मृत्यु तुल्य दुख होते हैं। शल्य कंटक युक्त भूमि भी दुख कारक है।
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प.
प.
उ.
वर्गाकार भूमि
द.
उ.
आयताकार भूमि पू.
द.
उ.
भूमि चयन करते समय ध्यान रखने योग्य लक्षण
आकार की अपेक्षा
विषम चतुर्भुज भूमि
द.
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प्र.
१.
चारों भुजाएं समान हों, अर्थात् वर्गाकार भूमि हो । यह सुमंगला भूमि है। इस पर जिन मन्दिर के निर्माण से सुख, शांति, समृद्धि की प्राप्ति होती है।
२.
ऐसी आयताकार भूमि जो उत्तर दक्षिण में लम्बी हो तथा पूर्व पश्चिम में अपेक्षाकृत कम चौड़ी हो, ऐसी भूमि चन्द्रवेधी कही जाती है। यह अत्यंत शुभ है। धन, धान्य, सुख, सम्पत्ति लाभदायिनी है।
३. जिरा भूमि की मुख भुजा से पृष्ठ भुजा किंचित दीर्घ हो तो उसे विषम चतुर्भुज भूमि कहते हैं। उस भूमि पर निर्मित मन्दिर यश, सुख, सम्पत्तिदाता होता है ।
दिगतिठा वीद्यम्पसवा चउरंसाऽवम्भिणी अफुट्टाय । अक्कल्लर भू सुहया पुर्वे साणुत्तरं बुवहा । १ / ९. सा. बम्मड़ागी वाहिकरी ऊसर भूमीइ हवइ शेरकरी | अइफुट्टा मिच्चुकरी दुक्खकरी तह व ससल्ला ।। १ / ५० व. सा