________________
देव शिल्प
मन्दिर निर्माण का पुण्य फल
जो गृहस्थ अपनी क्षमता के अनुरुप प्रभु का मन्दिर बनवाता है, वह असीम पुण्य का अर्जन करता है तथा वर्तमान एवं भविष्य दोनों को सुखी करता है। अनेको जन्म के पुण्य संचय से यह अवसर उपस्थित होता है कि वह प्रभु का मन्दिर बनवाये। शिल्प शास्त्रों में भी नवीन मन्दिर को निर्माण करवाने वाले को असीम पुण्यार्जन का उल्लेख उपलब्ध होता है। *
करोड़ों वर्षों के उपवास का फल, जन्म जन्मान्तरों में किया गया तप तथा करोड़ों दानों में करोड़ दान का फल यदि किसी को एक साथ मिल जाये वह फल एक नवीन जिन मन्दिर निर्माण कराने वाले उपासक को मिलता है। **
जो उपासक लकड़ी अथवा पाषाण का मन्दिर निर्माण करवाता है उसे इतना अधिक पुण्य मिलता है कि वह चिरकाल तक देव लोक में सुख भोगता है।#
स्वशक्ति के अनुरुप लकड़ी, ईंट, पाषाण, स्वर्ण आदि धातु, रत्न का देवालय उपासक को निर्माण करना चाहिये। ऐसा करने से चारों पुरुषार्थ अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि होती है ।$
देव प्रतिमाओं की स्थापना, पूजा, दर्शन करने से उपासक के पापों का हनन होता है तथा उसको धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चारों की प्राप्ति होती है।
११.
यदि कोई घास का देवालय भी बनाता है तो कोटि गुणा पुण्य का अर्जन करता है। मिट्टी का देवालय बनाने वाला उससे दश गुणा अधिक पुण्य कमाता है। ईंट का देवालय बनाने वाला निर्माण उससे भी सौ गुणा पुण्य अर्जन कर अपना जीवन सुखी करता है। पाषाण निर्मित देवालय निर्माण करने वाला जिन भक्त अनन्त गुणा पुण्य फल प्राप्त करता है।
* कोटे वर्षोंवारुश्च तप वै जन्म जन्पनि ।
कोटि दानं कोटि दाने, प्रासाद फल कारणे ।। शि. र. १३/८५
**
"काष्ठ पाषाण निर्माण कारिणो यत्र मन्दिरे । "
भुंजतेऽसौ च तत्र सौख्यं शंकरत्रिदशैः सह । प्रा. मं. ८/८४ #स्वशक्त्या काष्ठ मृदिष्टक। शैल धातु रत्नजम् । देवतायतनं कुर्याद् धर्मार्थ काममोक्षदम् । प्रा मं. १ / ३३ $ देवानां स्थापनं पूजा पापघ्नं दर्शनादिकम् : धर्मवृद्धिर्भवेदर्थः काम मोक्षस्ततो नृणाम् ।। प्रा. पं. १ / ३४ @ कोटिप्न तृणजे पुण्यं मृण्मयै दशसंवगुणम् ।
ऐष्टके शतकोटिघ्नं शैलेऽनन्तं फलं स्मृतम् ।। प्रा.म. ५/३५