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देव शिल्प
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अतएव सुख की इच्छा रखने वाले गृह को चाहिये कि वह अपने जीवनकाल में अपनी शक्ति के अनुरूप जिनेन्द्र प्रभु का मन्दिर अवश्य निर्माण कराये। यह मन्दिर अनेकों पीढ़ियों तक भव्यजन उपासकों के लिए प्रभु भक्ति का निमित्त कारण बनता है। असंख्य जीव इस मन्दिर के दर्शन कर पुण्य लाभ करेगें । अतएव प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों रूप से यह जीव लिए अत्यंत हितकारी है। जैन जैनेतर सभी शास्त्रों में मन्दिर निर्माणकर्ता के लिए असीग पुण्य फल की प्राप्ति का वर्णन देखने में आता है।
उमास्वामी श्रावकाचार में आचार्य श्री का स्पष्ट निर्देश है कि जिन मन्दिर एवं जिन प्रतिमा का निर्माण यथा शक्ति करना चाहिये। उन्होंने तो यहाँ तक लिखा है कि जो भव्य जीव एक अंगुल प्रमाण की प्रतिमा को भी कराकर उसकी नित्य पूजा करता है उसके पुण्य संचय को कहना शब्दों की सामर्थ्य में नहीं है। जो पुरुष बिम्बा फल (भिलावा) के पत्ते के समान अत्यंत लघु चैत्यालय (मन्दिर) बनवाता है तथा उसमें जौ के आकार की प्रतिमा रखाकर उसकी नित्य पूजा करता है, उस गृहस्थ का पुण्य अत्यंत महान होता है तथा उसके संसार चक्र का किनारा अब अत्यंत निकट है अर्थात् वह शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करता है।
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(उ.श्रा. १२४, ११५)
*अष्टमात्र वियतयः कृत्वा नित्यर्चयेत् । तत्फलन वस्तु हि शक्यते : संख्यपुण्ययुक् ॥ उ. श्री. ११५
बिन्यादरायतु बिम्बकम |
चः करोति तर मुक्तिर्मयति सन्निधिः ! 3 श्री. ५५