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________________ (देव शिल्प १०) मन्दिरों के निर्माण में वास्तु शिल्पकारों ने अपनी बुद्धिमत्ता का भरपूर उपयोग विाया। प्राचीन परम्पराओं एवं शास्त्रों के आधार पर निर्मित मन्दिरों ने भारत के सांस्कृतिक गौरव को स्थापित किया। यही वह आधार था जिस पर आघात करके विधर्मी अपना धर्म स्थापित करना चाहते थे। उनका विचार था कि यदि भारत स्थापत्यकला एवं संस्कृति को समाप्त कर दिया जायेगा तो भारत में वे अपना धर्म आसानी से प्रचारित कर लेंगे। किन्तु भारतीय संस्कृति के स्थापत्य गारव के भग्न अवशेषा ने पुनर्जीवन प्राप्त कर पुनः सांस्कृतिक वैभव को प्राप्त किया। मन्दिर की आवश्यकता का एक अन्य पहलू उसका ऊर्जामय वातावरण है। मन्दिर की आकृति एवं वहां निरन्तर मन्त्रों के पाठ की ध्वनि का परावर्तन आराधक को ऊर्जा प्रदान करता है। जब हम पापमय स्थानों में जाते हैं तो स्वाभाविक रुप से हमारे मन में पाप करने का कुविचार आते हैं। मन्दिर में इसके विपरीत आराध्य प्रभु के प्रति विनय, श्रद्धा तथा शरणागति के भाव उत्पन्न होते हैं। मन्दिर का शांत ऊर्जामय वातावरण मन की चंचल गति को स्थिरता देता है। अनायास ही हमारे मन में भगवान की भक्ति, अनुराग तथा उनके गुण ग्रहण करने की भावना होती है। जैन शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि जिन बिम्ब का दर्शन कर्म क्षय का हेतु है। इसका तात्पर्य यह है कि जिनेन्द्र प्रभु की प्रतिमा मात्र का दर्शन भी सुख पाने के लिए समर्थ निमित्त है, क्योंकि कर्मक्षय ही शाश्वत सुख पाने का एकमात्र कारण है। शास्त्रों में यह भी उल्लेखित है कि प्रथम बार सम्यग्दर्शन जिनेन्द्र प्रभु के पादमूल में ही होता है। जिन मन्दिर भी उनके बिम्ब का स्थान होने से सम्यादर्शन प्राप्त करने का सशक्त निमित्त है। अतएव जिन बिम्ब एवं जिन-मन्दिर धर्म का एक शाश्वत स्थान है। ___ मन्दिर की सर्वाधिक आवश्यकता है जनसामान्य को आराधना के लिये । मन्दिर स्थापनकर्ता के अतिरिक्त हजारों वर्षों तक असंख्य लोग निरन्तर भगवान की पूजा अर्चना करके अपना आत्मकल्याण करते है। उनकी पूजा में मन्दिर निमित्त बनता है। अतएव मन्दिर निर्माता को पूजा की अनुमोदना का फल मिलता है। चिरकाल तक पीढ़ी दर पीढ़ी जिस स्थल पर उपासना होती है उस स्थान का कण-कण पूज्य हो जाता है । वह स्थल तीर्थ बन जाता है । तीर्थ का अर्थ है-तारने वाला । असंख्य लोगों को भवसागर से पार लगाने के लिये तीर्थ स्वरूप मन्दिर की महिमा का गुणगान निरन्तर होता रहा है, आगे भी होता रहेगा।
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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