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________________ देव शिल्प मन्दिर की आवश्यकता मनुष्य का मन अति चंचल होता है । मन की गति की कोई सीमा अथवा रोक उसके पास नहीं होती। क्षण मात्र में विश्व के एक सिरे से दूसरी ओर मन घूम आता है। ऐसे चंचल म. को नियंत्रण में रखने के लिए धर्म के अतिरिक्त और कोई समर्थ नहीं है। इसी मन को यदि भगवान जिनेन्द्र के गुणानुराग में लगाया जाये तो कर्म बन्धन ढीले पड़ जाते हैं। इसीलिए मुनि एवं गृहस्थ दोनों के लिये यह परम आवश्यक है कि वह अपने मन को सांसारिक विषय वासनाओं के जंजाल से निवृत कर धर्म ध्यान में केन्द्रित करे। जिन महापुरुषों ने कर्म बन्धन को काटकर मोक्ष पद प्राप्त कर लिया है है उन महापुरुषों का गुणानुराग करने के लिए उनकी पूजा की जाती है। चूंकि हमारा मन अति चंचल है अतएव उन महापुरुषों की प्रतिकृति प्रतिमा के रुप में निर्मित की जाती है । इन प्रतिकृति को देखकर मन में उन महापुरुष के प्रति श्रद्धा भाव उत्पन्न होते हैं। उनके गुणों को जानने की तथा उनके निर्दिष्ट मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त होती है। प्रतिमा किसी भी द्रव्य की निर्मित की जा सकती है। शास्त्रानुसार प्रतिमा का निर्माणकर उसकी प्रतिष्ठा करने के उपरांत उस प्रतिमा में भी देवत्व प्रकट होता है। इसीलिये जैन धर्म में महापुरुष की अर्चना प्रतिमा के माध्यम से करने का निर्देश दिया गया है। जहां एक ओर महापुरुष को देवता माना जाता है वहीं दूसरी ओर उनकी प्रतिमा को भी देवता माना जाता है। प्रतिमा को पूजने का अर्थ पाषाण की पूजा कदापि नहीं है । वह तो महापुरुष अथवा भगवान का साकार रुप है । मन की चंचलता यदि वश में आ जाये तो पूजा करने की ही आवश्यकता शेष न रहे । मन की चंचल अवस्था के कारण ही साकार पूजा की जाती है। जिस प्रकार धर्ग पूज्य है, धर्म नायक पूज्य है, धर्म गुरु पूज्य है, धर्म नायक महापुरुष की प्रतिमा पूज्य है, उसी प्रकार उनकी प्रतिमा के रहने का स्थान भी आराधना स्थल है। मन्दिर भी देवता स्वरूप है एवं भगवान की भांति हो भगवान का गन्दिर भी पूज्य है। यही वह स्थान है जहाँ चंचल मन विश्रांति पाता है तथा संसार सागर रो पार उतरने का आश्रय प्राप्त करता है । यह आराधना स्थल, जिसे देवालय, मन्दिर, प्रासाद, जिन भवन आदि पृथक-पृथक नामों से वर्णित किया जाता है, देवता स्वरुप पूज्य है। प्राचीन काल से ही मनुष्य साकार पूजा कर रहा है तथा अपनी कल्पना के अनुरूप देवालय की रचना कर रहा है। मध्यकाल में लम्बे समय तक विधर्मियों के द्वारा साकार पूजा पद्धति को समूल नष्ट करने के लिए लाखों मन्दिरों एवं प्रतिमाओं को निर्दयता पूर्वक विध्वंस किया गया, किन्तु भीषण आघातों के उपरांत भी धर्म की जड़ को वे उखाड़ न सके तथा पुनः धर्म मार्ग की स्थापना हो गई। इस काल में अनेकों सम्प्रदायों ने मूर्तिपूजा पद्धति ही समाप्त कर दो विन्तु मन्दिरों का निर्माण करते रहे । मन्दिरों के माध्यम से धर्म का आधार रामाप्त नहीं होने पाया।
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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