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देव शिल्प
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अड्डथर, पुष्पकण्ठ, जाड्यमुख, कणी, केवाल ये पांच थर सामान्य पीठ में अनिवार्यतः होते हैं। इनके ऊपर गज थर, अश्व थर, सिंह थर, नर थर, हंस थर इन पांच थरों में सब अथवा कम - अधिक बनाना चाहिये । निर्माता की जितनी शक्ति हो उसके अनुरूप बनाना उपयुक्त है।
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पीठ के आकार का अनुपात
विभिन्न शिल्पशास्त्रों में पीठ के आकार का अनुपात पृथक-पृथक देखा जाता है। कुछ विशेष मत इस प्रकार हैं - १. अपराजित पृच्छा के मत में पीठ का मान पूर्ववत (प्रा. मं. के अनुरूप ) है सिर्फ चार हाथ की चौड़ाई वाले प्रासाद में ४८, ३२ या २४ अंगुल प्रमाण ऊंची पीठ बनाने का निर्देश है। अन्य माप के प्रासादों में पीठ में पीठ का मान नहीं है। **
२. वास्तु मंजरी के मत से प्रासाद की ऊंचाई (मंडोवर की ) २१ भाग करें, इनमें ५,६,७,८ या ९ भाग का मान की पीठ की ऊंचाई रखें। #
३. क्षीरार्णव के मत से प्रा. मं. के अनुरुप माप में मात्र २ से ५ हाथ के प्रासाद में प्रत्येक हाथ पांच-पांच अंगुल बढाकर ऊंचाई रखें। शेष नाम पूर्ववत् रखें। इस मत रो पचास हाथ की चौड़ाई में पीठ की ऊंचाई ५ हाथ ८ अंगुल होगी ।
४. वसुनन्दि श्रावकाचार के मतानुसार प्रासाद की चौड़ाई का आभार पीठ की ऊंचाई रखें। यह उत्तम मान है। इसके चार भाग करें इनका तीन भाग मध्यम तथा दो भाग कनिष्ठ मान होगा। पीठ का क्षर मान
पीठ की ऊंचाई के मान ५३ भाग करें। इसमें पीठ का निर्गम (निकलता हुआ भाग) रखना चाहिये। ऊंचाई के ५३ भाग में से ९ भाग का जाड्यकुम्भ, ७ भाग की अंतर पत्र के साथ कर्णिका, ७ भाग की कपोताली के साथ ग्रास पट्टी १२ भाग का गज थर, १० भाग का अश्व थर तथा ८ भाग का नर थर बनाना चाहिये। यदि देववाहन का थर बनाना चाहें तो इसे अश्व भर के स्थान पर भी बनाया जा सकता है। ##
कर्णिका के आगे
ग्रास पट्टी से आगे
५ भाग निकलता हुआ जाड्कुम्भ
३,५ / २ भाग निकलती हुई कर्णिका ४ भाग निकलता हुआ नर थर
हुआ भाग) रखें, गज, अश्व, नर थर के नीचे अन्तराल
अश्व थर से आगे
इस प्रकार २२ भाग निर्गम (निकलता
रखें तथा अंतराल के ऊपर व नीचे दो दो कर्णिका बनायें।
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"अधरं फुल्लि अओ जाडमुडो कणउ तह य कयवाली ।
गय अस्स सीह नर हंस पंच धरइं भवे पीठं ॥ व. सा. ३/४
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"अप. सू. १२३, #अप. सू. १२३ / ७, ##प्रा. मं. ३ / ७-८, १०-११