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(दन शिल्प
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लत्तिनजाति के प्रासाद ये प्रासाद एक श्रृंग वाले होते हैं।
श्रीवत्स प्रासाद ये प्रासाद वारि मार्ग से युक्त होते हैं।
सांधारपासाट परिक्रमा युक्त नागर प्रासाद को सांधार कहतें हैं। इनका आकार दस हाथ से बड़ा रहता है तथा ये अव्यक्त प्रासाद (भिन्न दोष रहित) होते है। इनमें सूर्य किरण का सीधा प्रवेश नहीं होता
विमाननागरप्रासाद प्रासाद के कोने के ऊपर केसरी आदि अनेक श्रृंग बनायें तथा भद्र के ऊपर उसश्रृंग बनायें, शिखर पांच मंजिला हो, ऐसा प्रासाद विमा- नागर जाति का कहा जाता है। इनके ऊपर अनेक श्रृंग तथा उरुश्रृंग होते हैं।
मेरुप्रासाद मेरु प्रासाद पांच हाथ से छोटा नहीं बनाया जाता है। पांच हाथ के विस्तार वाले गेरु प्रासाद के शिखर के ऊपर १०१ श्रृंग चढ़ाये जाते हैं। पांच हाथ से एक-एक हाथ पचास हाथ तक बढ़ाने में इनके एक-एक भेद हैं। प्रत्येक अगले भेद के लिए २०-२० अधिक श्रृंग चढ़ाये जाते हैं। इरा प्रकार पचास हाथ के मेरु प्रासाद पर १००१ श्रृंग हो जाते है । मेरु प्रासादों के गौ भेद भी वर्णित हैं :१. मेरुप्रासाद
- १०१श्रंग २. हेम शीर्ष मेरु - १५० श्रृंग ३. गुरवल्लभ मेरा २५० श्रृंग ४. भुवन गंड-| मेरु - ३७५ श्रृंग ५. रत्नशीर्ष मेस
५०१ श्रृंग ६. किरणोद्भव गेरु - ६२५ श्रृंग ७. कमल हंस मेरु - ७५० श्रृंग ८. स्वर्णकेतु मेरु - ८७५ श्रृंग .. ९. वृषभ ध्वज मेरु - १००१ श्रृंग
ये मेरु प्रासाद परिक्रमायुक्त अथवा बिना परिक्रमा के दोनों बनाये जाते हैं। यदि दो परिक्रमा बनायें तो उसके भद्र में प्रकाश के लिये गवाक्ष बनाना चाहिए। मेरु प्रासाद सिर्फ राजाओं को हो बनाना चाहिए । अकेले धनिक इन्हें न बनायें, यदि धनिक बनाना भी चाहे तो राजा के साथ बनायें अन्यथा महा अनिष्ट की संभावना है ।*
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* प्रा.मं. ६/३५-४६