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देव शिल्प
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मन्दिर निर्माण सामग्री प्रकरण
मूलतः वास्तु संरचना के लिये काष्ठ, लोहा, चूना, ईंट, पाषाण इत्यादि सामग्री का प्रयोग किया जाता है। गृह वास्तु का निर्माण इन्हीं पदार्थों से किया जाता है । किन्तु जिस भवन में तीन लोक के नाथ ईश्वर की स्थापना की जाती है उस भवन का निर्माण सिर्फ शुद्ध, पवित्र एवं श्रेष्ठ द्रव्यों रो किया जाना आवश्यक है। प्राचीन काल से ही मन्दिरों का निर्माण पाषाण से किया जाता रहा है। वर्तमान युग में वैज्ञानिक आविष्कारों के प्रभाव से वास्तु निर्माण कंक्रीट अर्थात् लोहा, सीमेन्ट, पाषाण से किया जाता है। सीमेन्ट के प्रयोग से कम स्थान में अधिक निर्माण संभव हो जाता है तथा मजबूती भी अधिक रहती है।
मन्दिर का निर्माण करने के लिये प्रमुखतः तीन प्रकारों की व्यवस्था है -
१.
पूर्णतः पाषाण निर्मित
२.
ईंट, गारे एवं पाषाण से निर्मित
3.
ईंट, सीमेंट एवं लोहा कंक्रीट
निर्मित
इनमें सामान्यतः भवनों का निर्माण तीसरी शैली से किया जाता है। मन्दिरों का निर्माण भी वर्तमान में इसी पद्धति से किया जाने लगा है। किन्तु यह पद्धति प्राचीन सिद्धांतों से मेल नहीं खाती अतएव इस पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है।
प्रथम दो पद्धतियों से बनाये गये मन्दिर निर्माण भी सैंकड़ों वर्षों तक स्थिर रहते हैं जबकि मजबूती का दावा करने वाले कंक्रीट के निर्माण सौ वर्ष से ज्यादा टिकने में असमर्थ प्रतीत होते हैं। हाँ यह अवश्य है कि पाषाण निर्माणों में स्तंभ तथा दीवालों की मोटाई अत्यधिक रखना पड़ती है। इस कारण उपयोग के लिये स्थान में कमी आ जाती है।
लोहे के प्रयोग का निषेध
शिल्पशास्त्रों में काष्ठ, मिट्टी, पाषाण, धातु, रत्न आदि से मन्दिर वास्तु निर्माण का निर्देश दिया है लोहे को अधम धातु मानकर इसका मंदिर निर्माण हेतु शिल्प शास्त्रों में निषेध किया गया है। लोहे में जंग लगना अथवा मजबूती को दृष्टिगत रखने के उपरांत भी इसके अधम होने के कारण इराको वर्जित किया गया है। त्रिलोकपति जिनेन्द्र प्रभु के मन्दिर का निर्माण अधम वस्तु से न किया जाये, इसका निर्माणकर्ता को ध्यान रखना आवश्यक है। ऐसा न करने घर निर्माणकर्ता एवं उपयोगकर्ता रामाज दोनों को अनावश्यक विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।
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* काष्ठे पृथिष्टके चैव पाषाणे धातु रत्नजे । उत्तरोत्तरं दृढं द्रव्यं लीह कर्म विवर्जयेत् । शिल्प स्मृति वास्तुविद्या ६/११६ उत्तमोत्तमधात्वादि पाषाणष्टिककाष्टकम् । श्रेष्ठमध्यमाधमं द्रव्यं लौह अधमाधमम् । शिल्प स्मृति वास्तुविद्या ६/१७
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