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(देव शिल्प)
वज्रलेप
प्रतिमाओं एवं देवालयों को क्षरण से बचाना आवश्यक होता है। यदि प्रतिमा भंग हो जाए अथवा उसके अंग उपांग घिस जायें तो प्रतिमा की पूज्यता समाप्त हो जाती है। क्षरण से बचाकर प्रतिमा की स्थायित्व के निमित्त उसमें वज्रलेप करना आवश्यक है। ऐसा करने से हमारी सांस्कृतिक धरोहर स्थायी रह सकती है। प्रतिमा का वज्रलेप करने के उपरांत उसका पुनः संस्कार करा लेना चाहिये । यहां यह स्मरण रखें कि खण्डित प्रतिमा के अंगोपांग मसाले या अन्य द्रव्य से बनाकर उसे पूरा करके उस पर वज्रलेप नहीं चढायें। ऐसा कदापि न करें । वज्रलेप सिर्फ अखण्डित प्रतिमा पर ही चढायें । खण्डित प्रतिमा न पूजा के योग्य है न ही पुनः संस्कार के । कच्चा तेंदूफल, कच्चा कैंथ फल, रोमल के फूल, शाल वृक्ष के बीज, धामनवृक्ष की छाल तथा वच इनको बराबर-बराबर वजन कर १०२४ तोला पानी में डालकर काढा बनायें। जब पानी आठवां हिस्सा रह जाये तब उसे उतारकर उसमें श्रीवसक ( सरो) वृक्ष का गोंद, होराबोल, गुगल, भिलवा, देवदार, कुंदरू, राल, अलसी तथा बिल्व (बेलफेल) को महीन कर बराबर-बराबर लेकर गिला देवें तथा खूब हिलायें तो वज्रलेप तैयार हो जायेगा। *
यह लेप प्रतिमा, देवालय आदि के जीर्ण होने पर गरम गरम लगायें। ऐसा करने से लेप की हुई प्रतिमा अथवा देवालय की स्थिति काफी अधिक यहां तक कि हजार वर्ष बढ़ जाती है। वज्रलेप तैयार करते समय अनुभवी व्यक्ति से परामर्श अवश्य ले लेवें ।
# आमं तिन्दुकमामं कपित्थकं पुष्पमपि च शाल्मल्याः । वीजानि शल्लकीनां धन्चनवल्को व्य चेति ॥ शि.२.१२ / २१० एतैः सलिलद्रोणः क्वाथयितव्योऽष्टभागशेषश्य ।
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अवतार्योऽस्य च कुरुको द्रवरितः रामनुयोज्यः ॥ . २.१२ / २११ श्रीटारकरश गुग्गुलु भल्लातकः कुन्दुरुकसर्जरसः ।
अतसी बिल्वैश्च युतः कल्कोऽयं वज्रलेपारव्यः । शि. २.१२/२१२ प्रासादह वलभी लिंगप्रतिमासु कुयकूपेषु
सन्तप्तो दातव्यो वर्षसहस्राय तस्यायुः ।। शि. २. १२ / २०३