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________________ (देव शिल्प वेध प्रकरण मन्दिर का निर्माण करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये कि किसी प्रकार का वेध दोष न आये। वेध दोष बिभिन्न प्रकार के होते हैं तथा उनका फल प्रत्यक्ष ही देखने में आता है। धर्मशाला, त्यागी भवन आदि के निर्माण में भी इन दोषों का परिहार करना चाहिये। वेध के प्रकार १. तल वेध - जिस भूगि पर निर्माण किया जाना है वह भूमि समतल हो । उबड़-खाबड़ अर्थात् विषम या गड्ढे वाली भूमि होने पर तलवेध कहा जाता है। इस पर निर्माण अशुभ होता है। २. कोण वेध -यदि वास्तु में कोने समकोण ९० के न होकर न्यून अथवा अधिक हों तो इसे कोण वेध कहते हैं। इस वेध के प्रभाव से सम्बन्धित निवासी परिवारों में निरन्तर अशुभ घटनाएं, परेशानियां, वाहन दुर्धटना इत्यादि की संभावना होती है। व.स.१/११७ * ३. तालू वेध -मन्दिर की दीवारों के पीढ़े अथवा खूटी ऊंची नीची होने पर तालू वेध होता है। इससे अनायास चोरी का भय निर्मित होता है। समाज में भी ऐसी घटनाएं संभावित होती हैं। ४. शिर येध- मन्दिर के किसी द्वार के ऊपर मध्य भाग में बूंटी आदि लगाने से शिर वेध होता है। इससे समाज में दरिद्रता तथा शारीरिक, मानसिक संताप बना रहता है । व.सा १/११८** ५. हृदय वेध-मन्दिर के लीक मध्य में स्तम्भ होने पर हृदय वेध होता है। ठीक मध्य में जल अथवा अग्नि का स्थान बनाने पर भी मन्दिर में हृदय शल्य या वेंध माना जाता है। इससे समाज में कुल क्षय, वंश नाश इत्यादि परेशानियां बनी रहती है। व. सा. १/११९# ६. तुला वेध-मन्दिर में विषम संख्या में खूटी अथवी पीढ़े हों तो इसे तुला वेध कहते हैं। इसके प्रभाव से समाज में अशुभ घटनाएं घटने की संभावना बनी रहती है। व.सा. १/१२०%23 ७. द्वार वेध- मन्दिर के द्वार के ठीक सामने अथवा मध्य में यदि स्तम्भ अथवा वृक्ष हो तो इसे द्वार वेध कहते हैं। किसी अन्य गृह अथवा मन्दिर का कोना मन्दिर के दरवाजे के सामने पड़ता है तो भी द्वार वेध होता है। किसी अन्य का गाय भैंस आदि पशु बांधने का खुंटा द्वार के सामने पड़े तो भी यही दोष होता है। व.सा. १/१२१% ----- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - "समविसमभूमि कुंभि न तालपुरं परनिहस्स तलवेहो। कुणसम जइ कूर्ण न हवाइ ता कूणवेहो अ॥व.सा. १/११७ *इक्कखणे नीचुर्च पीढं तं मुणह तालुयावेह। बारस्शुबरिमपट्टे गड पीढ़ च सिरवहं ।। व.सा. १/११८ #गेहस्स मज्झिमाए धमेगं तं मुह उरसलम। अह अजलो विनलाईहविऊन जा यंमबेहो सो॥व.सा. १/११९ #हिछिम उमरि खणाणं हीणाष्टियपीढ़ तं तुलावेहं। पीढा समसंस्खायो हवंति सइ तत्थ नहु दोसो।। व.सा. १/१२० म-कूय-धंभ कोणय-किलाविले डुवारबेहोय। बेहुच्चबितणभूमी तं न विरुखं बुहा विति।। ३.सा.१/१२१
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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