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________________ (देव शिल्प मन्दिर के सामने कीचड़ होना अथवा मलिन पशु जैसे शूकर आदि बैठे रहना भी महादोष है। ... इससे शोक उत्पन्न होता है। किसी के घर का रास्ता गन्दिर से होकर जाना अथवा किसो के घर के गन्दे पानी के निकारा की नाली मन्दिर या उसके द्वार के ठीक सामने से जाने से भी अत्यंत अशुभ होता है तथा समाज के लिए क्षतिकारक होता है। मंदिर के मुख्य द्वार से अन्य वास्तु का रास्ता जाना भी विपरीत प्रभावकारी एवं हानिकारक होता * * * संख्याओं के अनुसार वेधों का फल यदि मन्दिर एक वेध से दूषित हो तो आपसी कलह का कारण बनता है। यदि दो लेन से पित होने से अति हानि होगी। यदि तीन वेध हों तो मन्दिर में सूनापन रहेगा तथा भूत-प्रेत निवास करते हैं। यदि चार वेध से टूषित हो तो मन्दिर की सम्पत्ति नष्ट होती है। यदि पांच वेध होवें तो वह ग्राम ही उजड़ जाता है तथा महामारी आदि महान उत्पात होने की संभावना रहती है। * * वेध परिहार मन्दिर और वेध के बीच यदि राजमार्ग, कोट, किला आदि हो तो वेधजनित दोष नहीं होता है। यदि मध्य में दीवाल हो तो स्तंभों के पद का भी दोष नहीं रहता है ।* मकान की ऊंचाई की दूनी जमीन को छोड़कर (दूनी दूरी से अधिक दूरी होने पर) वैध दोष नहीं होता है। गृह एवं वेधवस्तु के मध्य राजमार्ग हो तो भी वेध नहीं होता।# प्रासाद अथवा गृह के पीछे या बगल में ये सब वस्तु हों तो वेध नहीं होता। सिर्फ सम्मुख रहने पर ही वेध होता है । ## "इनवेहेण य कलहो कमेण हाणिं च जत्थ दो हति। तिहआण निवासी चउहि वऔपंचहिं मारी।। न.सा.१/१२४ *उच्छायाद द्विगुणां तिहाच पथिवीं रेधो न भित्यन्तरे प्राकारान्तर राजमार्ग परता वेद्यो न लोग दये। (वस्तु राजवल्लभ /२७) (वास्तु रत्नाकर ८/५४) #पृष्टतः पार्श्व योर्वापि न वेधं चिन्तयेद बुधः । प्रासादे वा गृहे वापि वेधपो विनिर्दिशेत्।। वास्तु रत्नाकर ८/५५ ##उच्छायभू िद्विगुणां त्यक्त्वा चैत्ये चतुर्गुणाम् वेधादिदोषी जैवं स्वाद एवं स्वष्टवातं यथा। -आचार दिनकर
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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