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(देव शिल्प)
४. चाहे मंजिल नीचे की हो अथवा ऊपर की, दृष्टि वेध न आये।
वेदी में भगवान की प्रतिमा का मुख अनुकूल दिशा में अर्थात् उत्तर या पूर्व में ही रखें। प्रवेश भगवान के सामने से ही रखें।
सौदिया दक्षिणी अथवा पश्चिमी दीवाल से लगकर बनायें। ८. किसी भी स्थिति में भिन्न दोष रहित वाले देवों के मंदिर के गर्भगृह में सीधे सूर्य किरण न
जाये, इसका ध्यान रखें।
गर्भगृह को तोड़कर हॉल नहीं बनाये। हाल या गण्डप सामने ही बनाये। १०. पूरे मन्दिर में कुल येदियों की संख्या विषम रखें । वेदियों में प्रतिमाओं एवं कटनियों की
संख्या भी विषम रखें। ११. सभी सामान्य वास्तु शास्त्र नियमों का पालन करें। १२. यदि मन्दिर में ठीक सामनं से प्रवेश असंभव हो तो यह ध्यान रखें कि येदी प्रतिमा अथवा
भूलनायक प्रतिगा की पोल द्वार की तरफ ना आये। १३. अपरिहार्य स्थिति में भी पूर्व अथवा उत्तर में से एक देशा से प्रधान अवश्य ही रखें। ऐसा न
करने से समाज में अशुभ एवं अप्रिय वातावरण निर्माण होंगे। १४. गर्भगृह में स्थान यदि कम भी पड़ता हो तो उसे बड़ा न करायें। भले ही समक्ष में वृहदाकार
मण्डप बना लेवें। गर्भगृह का मूल स्वरुप यथावत् रखें। १५. मन्दिर का धरातल सड़क से नीचा न हो। १६. आधुनिकता के फेर में मन्दिर की पवित्रता, सादगी एवं धार्मिकता में न्यूनता न आने देखें।
सजावट मनोहारी तो हो लेकिन ऐसा करना पर्याप्त मर्यादाओं के भीतर हो ।