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(देव शिल्प
(३८) आयप्रकरण गन्दर एवं गृह दोनों प्रकार के वारतु निर्माणों में आय की गणना का अपना विशिष्ट महत्व है। इसकी गणना करके अपने माप में समुचित संशोधन करके ही निर्माण करना इष्ट है। आय की गण-।। भूमि के क्षेत्रफल द्वार के आकार, गृह के आकार, प्रतिमा की दृष्टि का स्थान में अवश्यमेव धारना चाहिये । आय का नाम एवं फल समझने के लिए आगे सारणी दी गई है।
यहां यह अवश्य समझ लेवें कि 'आय' शब्द का अर्थ लाभ या धन आमदनी से नहीं है। यह क्षेत्रफल, लम्बाई एवं चौड़ाई की गणना का निर्णय करने हेतु एक पारिभाषिक शब्द है। शब्द के तात्पर्य अर्थ का ही ग्रहण करना यहां प्रासंगिक है।
आय की गणना लम्बाई एवं चौड़ाई को भूमि की गणना करें। इनका आपरा में गुणा कर क्षेत्रफल निकाल लेवें। इसमें आठ का भाग देवे तथा जो शेष आये वही आय कहलाती है। (व.सा. १/५०)
आत का भाग देकर शेष बचने पर आय के नाम इस प्रकार है -*
१ एक शेष बचे तो ध्वज आय २ दो शेष बचे तो धूम्र आय ३ तीन शेष बचे तो सिंह आय ४ चार शेष बचे तो श्वान आय ५ पांच शेष बचे तो वृष आय ६ छह शेष बचे तो खर आय ७ सात शेष बचे तो गज आय
८ आठ या शून्य शेष बचे तो ध्वांक्ष आय इनमें ध्वज, सिंह, वृष, गज आय शुभ हैं तथा धूम्र, श्वान, खर एवं ध्वाक्ष आय अशुभ है । # लम्बाई चौड़ाई की गणना करने के समय स्मरण रखें कि देवालय एवं मण्डप की भूमि का माप दीवार करने की भूमि सहित लेवें । गृहवास्तु, आसन, पलंग आदि की गणना में दीवार छोड़कर मध्य की भूमि मात्र को ग्रहण करें।
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*ध्वजो धूपश्च सिंहश्च श्वालो वृषस्वरौ गजः । ध्यांक्षश्चेति समुदिष्टाः प्राच्यादिसु प्रदक्षिणाः :। (अप. सू. ६४) 2वजः सिंहो वृषगजी शस्यते सुरवेशानि। अधमानां खरध्वांक्ष-धूमश्वानाःसुरदाबहाः । : (अप.सु. ६४) $ ये पर्वकासले मंदिरे च देवागारे मण्डपे वित्ति बाहदै। राजवल्लभ