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(देव शिल्प
(२०८ कलश कलश मन्दिर के शिखर के हो ऊपरी पा. आणि किया जाता है । शिखर से मन्दिर में शोभा आती है उसे भांति कलश से शिखर में शोभा आती है। कलश गन्दिर के मुकुट की भांति
है। कलशारोहण के उपरांत ही मन्दिर के कार्य को पूर्ण समझा जाता है अतएव इस कार्य को पूरी गंभीरता से करा चाहिये।
कलश की निर्माण सामग्री
कलश का निर्माण उसी द्रव्य से किया जाना चाहिये , जिसे द्रव्य से मन्दिर का निर्माण किया जा रहा हो । काष्ठ का कलश ही लगाना चाहिये । धातु के मन्दिर में धातु का तथा पाषाण के मन्दिर में पाषाण का कलश लगाना चाहिये।
बहुमूल्य धातु यथा स्वर्ण अथवा रत्न का भी कलश लगाया जा सकता है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा (अथवा प्राण प्रतिष्ठा) होने के उपरांत स्वर्ण या रून कलश चढ़ाया जा सकता है।
कलश का आकार
कलश
शिखर के स्कन्ध से पद्मकोश तक के अंतिग बिन्दु तक की ऊंचाई के सात भाग करें।
इसमें एक भाग की ग्रीवा, डेढ़ भाग का आमलसार, डेढ़ भाग के पात्र या चंद्रिका तथा तीन भाग का कलश बनायें। द्विभाग की चौड़ाई वाले कलश का बीजोरा बनाएं।
प्रा. मं ४/३७-३८.३९ कलश की ऊंचाई के मान में उसका सोलहवां भाग बढ़ावे तो ज्येष्ठ मान का कलश होगा। यदि बत्तीसवां भाग बढ़ाएं तो मध्यम मान की कलश की ऊंचाई होगी। जो ऊंचाई आये उसके नौ भाग करें। उसमें एक भाग की ग्रीवा और पीठ, तीन भाग का अंडक (कलश का पेट), दोनों कर्णिका ( एक छल्ली और एक कणी) एक एक भाग की तथा तीन भाग का बीजोरा ऊंचाई में रखें।
बीजोरा के अन भाग की चौड़ाई एक भाग तथा मूल गाग की चौड़ाई दो भाग, ऊपर की कणी की चौड़ाई तीन भाग, आधी पीठ की चौड़ाई दो भाग (पूरी पोठ की चौड़ाई चार भाग) तथा कलश के पेट की चौड़ाई छह भाग है।