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(देव शिल्प
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धर्मसभाअथवा व्याख्यानभवन
मन्दिर जिनेश्वर प्रभु का आलय है। यहां पर आने से उपासक को मानसिक शान्ति के साथ ही धर्म मार्ग की प्राप्ति होती है। समय समय पर मन्दिर में आचार्यगण और साधु परमेष्टी अपने संघ सहित पदार्पण करते हैं। धनिष्ठ श्रद्धालुजन उनके प्रवचनों का लाभ लेकर अपना जीवन धन्य करते हैं। प्रवचन या व्याख्यान भवन का निर्माण इसी लिये किया जाता है कि धर्म सभा का लाभ अधिक से अधिक प्राणियों को हो सके। साथ ही अन्य येदिकाओं में पूजनादि कर्म कर रहे उपासकों को भी विख्न न हो।
धर्मसभा भवन का निर्माण मन्दिर के उत्तरी भाग में करना सर्वश्रेष्ठ है। इसका निर्माण इस प्रकार किया जाना चाहिये कि प्रवचनकर्ता का चबूतरा दक्षिणी भाग में बनाया जाये तथा धर्माचार्य उत्तर की ओर मुख करके धर्मसभा को सम्बोधित करें। यदि दक्षिण में चबूतरा बनाना संभव नहीं हो तो दक्षिण के स्थान पर पिसम में बनारों लशा धर्माचार्य पर्व मखी होकर व्याख्यान देवें।
इस कक्ष में द्वार उत्तर, पूर्व, ईशान में ही बनायें। अपरिहार्य स्थिति में दक्षिणी आग्नेय तथा पश्चिमी वायव्य में ही बनायें अन्यत्र नहीं । हाल की ऊंचाई पर्याप्त रखें, किन्तु वह मुख्य मन्दिर से ऊंचा न हो। हाल में वायु के आवागमन के लिये पर्याप्त व्यवस्था रखें। हाल के बाहरी भाग में आग्नेय कोण की तरफ बिजली के मीटर, स्विच बोर्ड आदि लगाये। ईशान में कदापि न लगायें। भले ही वायव्य में लगा सकते हैं।
धर्मराभा की छत का रंग सफेद ही रखें । अन्य रंग संयोजन भी इस प्रकार रखें कि उपयोगकर्ता को सुख शांति का अनुभव हो । यह ध्यान रखें कि कोई भी बीम ऐसी न हो जो कि प्रवचनकर्ता के स्थान के ऊपर स्थित हो।
स्वतन्त्र रुप से स्वाध्याय करने वाले श्रावक अपना मुख उत्तर में रखकर बैठे। पूर्व की दिशा में भी मुख करके बैठ सकते हैं। यदि इस कक्ष में शास्त्र की आलमारियां तथा भंडार (दानपेटी) रखना हो तो उसे नैऋत्य भाग में ही रखें।
- कदाचित् सामाजिक उद्देश्य की सभा, अधिवेशन आदि के लिये इन कक्षों का प्रयोग कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में सभापति नैऋत्य भाग में बैठे तथा उसका मुख उत्तर की ओर ही होवे। किसी भी परिस्थिति में मूल मन्दिर में सामाजिक सभाएं न करें। इससे मन्दिर की शुचिता में दोष आता है।