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(देव शिल्प
गुप्त भंडार एवं धन सम्पत्ति कक्ष
मन्दिर में दर्शन पूजन करने वाले श्रद्धालु, उपासक सामान्यतः कुछ न कुछ दान नियमित रूप से करते ही हैं। इसे भंडार तिजोरी में डाला जाता है। इसमें दान करने वाले का नाम गोपनीय होता है । अतः दूरो गुप्त भंडार भी कहा जाता है। कुछ राशि बोलियों के माध्यम से भी प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त कुछ तीर्थस्थलों में छत्र चढ़ाने की भी मान्यता है। मन्दिरों में छत्र, चंबर, 'भामंडल, सिंहासन कीमती धातुओं यथा चांदी से बने पूजा के बर्तन इत्यादि भी रखना पड़ता है। इन सबके भंडारण के लिये शास्त्रकारों ने उत्तर दिशा को सर्वोत्तम कहा है। यह कुबेर का स्थान है तथा यहा पर स्थित भंडार स्थिर एवं वृद्धिंगत होते हैं। किसी भी स्थिति में भंडार वायव्य में न रखें।
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गुप्त भंडार बनाने के लिये आवश्यक निर्देश
५- यदि मन्दिर पूर्णभिमुखी है तो भंडार पेटी / तिजोरी जिन प्रतिगा के दाहिनी ओर रखना चाहिये तथा इस प्रकार रखें कि वह उत्तर की ओर खुले ।
२- यदि मन्दिर उत्तराभिमुखी हो तो भंडार पेटी / तिजोरी भगवान के बायें हाथ की ओर तथा उत्तर की ओर खुले इस प्रकार रखें। ऐसा करने से भंडार सदैव वृद्धिगत होते हैं।
३- गुप्त भंडार कभी भी दीवालों के अन्दर न बनायें ।
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गुप्त भंडार पेटी कभी भी दीवाल से सटाकर न रखें ।
गुप्त भंडार सीढ़ी के अथवा बीम के ठीक नीचे न रखें।
मन्दिर के सभी महत्वपूर्ण कागजात भी उत्तरी दिशा में खुलने वाली आलमारी में रखें। अलगारी दक्षिण भाग में रखें।
मन्दिर के बहुमूल्य उपकरण एवं भंडार दक्षिण, पश्चिमी अथवा नैऋत्य भाग में रखें। आज़गारी का मुख उत्तर की ओर खुले। ऐसा करना श्री वर्धक होता है। इससे समाज में सहयोग रहता है तथा नि तर धनागम होता है।