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(देव शिल्प
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४. ऊपर निर्मित मन्दिरनुमा गुमटी में चार जिन प्रतिमाएं एक ही नाप की तथा मूलनायक प्रभु के नाम की स्थापित करें। चारों जिन प्रतिमाएं या तो एक ही पत्थर में निर्मित हों अथवा चार पृथक पृथक हों। ५. मान स्तंभ के ऊपर शिखर तथा कलश का निर्माण करना चाहिये। ६. मानस्तंभ में निर्मित जिनालय वर्गाकार ही होना चाहिये। ७. मानस्तंभ के नीचे के भाग में तीन कटनियां बनाना चाहिये । प्रथम कटनी में तीर्थंकर की माता के सोलह स्वप्न चित्रित करें। . द्वितीय कटनी में अष्ट प्रातिहार्यों का चित्रण करें। तृतीय कटनी में चारों ओर चार जिन प्रतिमाओं की स्थापना करें। भान स्तंभ की प्रतिमाएं तीर्थंकर के चिन्ह युक्त होवें। इनका खड्गासन होना श्रेष्ठ है। ८. भान स्तंभ पर स्वर्ण कलश आरोहित करें तथा ध्वजारोहण करें। ९. मान स्तंभ की प्रतिमाओं के पास अष्ट मंगल द्रव्यों की स्थापना करें। १०. मान स्तंभ के नीचे के भाग की जिन प्रतिमा तथा मूल नायक प्रतिमा की दृष्टि एक सूत्र में
होना चाहिये। ११. भान स्तंभ की प्रतिभाओं का दैनिक अभिषेक आवश्यक नहीं है। फिर भी यदि वार्षिक रूप से समारोह पूर्वक अभिषेक किया जाये तो अति उत्तम है। १२. मान स्तंभ का निर्माण मन्दिर से कुछ ऐसे पर करें ताकि दृष्टि भेद न हो। १३. मान स्तंभ के चारों ओर लगभग एक गज ऊंचा परकोटा अनायें । यह वर्गाकार बनायें तथा चारों दिशाओं के मध्य में शोभायुक्त द्वार बनायें। परकोटे को कलाकृतियों से सुसजित करें। १४. परकोटे की सजावट के लिये कलापूर्ण अष्ट मंगलद्रव्य, धार्मिक बोधवाक्ष्य, सूत्र आदि, नवकार मंत्र लिखवाकर करना चाहिये। १५. मान स्तंभ के आस-पास पूर्ण स्वच्छता रखें।
मानस्तंभ के प्रकरण में यह विशेष बात है कि अशौच अथवा सूतक पातक आदि की स्थिति में भी जिन बिम्ब का दर्शन किया जा सकता है। इसमें कोई दोष नहीं है। साथ ही इतर लोग भी बाहर से ही जिन प्रतिमा के दर्शन बगैर मन्दिर में प्रवेश किये कर सकते हैं।