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(दव शिल्प
(१३५) भित्ति मन्दिर के लिये दीवालों का निर्माण किया जाता है। यदि सभी दीवालें अगली दीवाल से एक सूत्र में बनायी जायेंगी तो वास्तु उपयोगकर्ता के लिये सुखदायक होती है। मन्दिर की दीवालों का श्रेणी भंग होना समाज के लिये अनपेक्षित कष्टदायक होता है।
अग्र भित्ति समान सूत्र में होना शुभ का गया है। दीवालों का श्रेण भंग होना पुत्र एवं धन हानि में निर्मित होता है। *
मन्दिर की दीवालों में दरार पड़ना, फटना, दीवाल सीधी न होना, उबड़-खाबड़ होना, मन्दिर एवं समाज दोनों के लिए अशुभ एवं अहितकारक है। अतएव दीवाल का निर्माण बड़ी सावधानी से करना चाहिये।
विभिन्न दिशाओं में भित्ति में दरार एवं भंग होने काफल दीवाल की दिशा पश्चिमी दीवाल
सम्पत्ति नाश एवं चोरी का भय दक्षिणी दीवाल
रोगबृद्धि, मृत्युतुल्य कष्ट पूर्वी दीवाल
समाज में फूट, विवाद उत्तरो दीवाल
आपसी वैमनस्य, अशुभ
मन्दिर की दीवालों का निर्माण करते समय यह ध्यान रखें कि सर्व प्रथम दक्षिणी दीवाल पश्चिम से पूर्व ( अर्थात् नैऋत्य से आग्नेय की तरफ) बनायें। इसके उपरान्त दक्षिण से उत्तर (अर्थात् नैऋत्य से वायव्य) की तरफ बनाएं। इसके उपरांत उत्तरी दीवाल पर पश्चिम से पूर्व ( अर्थात् वायव्य से ईशान) की तरफ बनायें। सभी कक्षों की दीवालें इसी प्रकार के क्रम में उठायें। इसके विपरीत क्रम में बनाने से कार्य में अनेकों विध्न आयेंगे तथा कार्य में अनपेक्षित विलम्ब होंगे।
___ मन्दिर की दीवालों का कोण ९०° समकोण रखना आवश्यक है अन्यथा दीवालों में टेढ़ापन आयेगा तो महा अशुभ तथा विघ्नकारक होगा।
मन्दिर की दीवालों में सीलन(नमी) बना रहना रोगोत्पत्तिका कारण है अतएव दीवाल बनाते समय ऐसा मिश्रण उपयोग करें कि सीलन न आये।
*समान स्त्रै शुभपा भित्तिः श्रेणी विभंजे सुत वित्त जाशः । पंचरत्नाकर