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________________ (देव शिल्प फल विभिन्न दिशाओं में धर्मसभा कक्ष बनाने का फल: दिशा उत्तम वार्तालाप, आपसी विश्वास में वृद्धि आग्नेय निरर्थक वार्तालाप दक्षिण मतभेद, चैमनस्य नैऋत्य विचार शैथिल्य, दुर्भावना पश्चिम उत्साह का अभाव वायव्य आपसी नाराजी, भ्रम उत्तर रार्वोत्तम, शांतिपूर्वक वार्तालाप, सभाधान ईशान उत्तम चर्चा शास्त्र भंडार जिनेश्वर प्रभु के गन्दिर में पूजन दर्शन करने के उपरांत शास्त्र स्वाध्याय का बहुत महत्व है। जिनेन्द्र प्रभु द्वारा प्रतिपादित भोक्ष मार्ग जानने के लिये यह आवश्यक है कि हम उनके उपदेशों से परिचित हों। प्राचीनकाल में शास्त्रों का लेखन ताड़पत्रों पर होता था। पश्चात कागज के हस्त लिखित शास्त्रों का युग आया। धर्म की परम्परा निर्याहते ये शास्त्र वर्तमान में आधुनिक मशीनों द्वारा मुद्रित किये जाते हैं। इन शास्त्रों को पृथक से रखना चाहिये ताकि उपयोगकर्ता आसानी से अपेक्षित शास्त्र निकाल सके । ताड़ पत्र एवं प्राचीन हस्तलिखित शास्त्रों को पृथक आलमारो में भली भांति सुरक्षित रखना चाहिये। अत्यधिक उपयोग में आने वाले पूजा ग्रन्थ एवं गुटके पृथक सर्वोपयोगी स्थान पर रखें। सभी शास्त्र भंडार की आलमारियां दक्षिणी, नैऋत्य अथवा पश्चिमी भाग में रखें ताकि ये उत्तर या पूर्व की तरफ खुलें । सभी आलमारियां यथा संभव दीवाल से सटाकर रखना चाहिये। आलभारियों का आकार आयताकार ही रखें, विषम आकार की न रखें। आलमारियां टेढ़ी या झुकाकर न रखें। दीवाल के अन्दर बनी सभी आलमारियां एक ही सूत्र में बनायें। विषम रखने से मन्दिर में निरर्थक वाद विवाद की संभावना बनती है। दीवालगत आलमारियों के ऊपर खूटी या कील न टुकवायें अन्यथा निरर्थक मानसिक तनाव उत्पन्न होगा। -----000-----
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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