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(देव शिल्या
रेखांकन प्रासाद निर्माण हेतु परिकल्पना चित्र तैयार हो जाने के उपरांत शुभ मुहूर्तादि में भूमि चयन तथा शल्य शोधन कर लेवें। इसके बाद चयनित भूमि में शिल्पकार रेखांक-1 का कार्य प्रारममा करें।
रेखांकन प्रारंभ करने के पहले निर्माणकर्ता वर्णानुसार अपने अंग को स्पर्श करे। ब्राह्मण सिर को स्पर्श करे । क्षत्रिय नेत्र को स्पर्श करे । वैश्य पेट को स्पर्श करे तथा शूद्र पैरों को स्पर्श करें। *
रद्धांकन कार्य वर्तमान में चाक पावडर अथवा चूने से किया जाता है। किन्तु जिन प्रासाद के लिए रेखांकन शुभ द्रव्यों से किया जाना पुण्य वर्धक है। हाथ के अंगठे, मध्यमा अंगुली या प्रदेशिनी अंगुली से रेखा खींचना चाहिये । स्वर्ण, रजत आदि धातु से, मणि आदि रत्न से तथा पुष्प, दधि, अक्षत आदि से रेखांकन करना शुभस्कर है ।#
रेखांकन किये जाने के समय का शुभाशुभ कथन
१.यदि शरत्र से रेखांकित किया जाये तो शत्रुभय होता है। लोहे से रेखांकन करने से बन्धन भय होता है। भस्म से रेखांकन करने से अग्निभय होता है। तृण या काष्ठ से रेखांकन से राजभय होता है। यदि रेखा टूट जाये या टेढ़ी हो तो शत्रुभय होता है। रेखा स्पष्ट न हो तथा अशुभ ट्रव्य अर्थात् अस्थि, चर्म, दांत अथवा अंगार से बनाई गई हो तो अकल्याण होता है तथा मरण तुल्य कष्ट होता है।
२. रेखांकन के समय कोई थूक दें अथवा छींक देवे तो अशुभ होता है। यदि कोई कटु वचनों का प्रयोग करे तो यह भी शुभ नहीं है।
३. जिस समय नाप के लिए सूत्र डाला जाता है तथा इसके लिए कील ठोकी जाती है उस समय यदि सूत्र (धागा) पसारते समय टूट जाये तो महा अशुभ होता है इससे यजमान या मन्दिर निर्माता को मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट होता है। कील गाड़ने के समय यदि उसका मुख नीचे हो जाये तो भोषण संकट, भय, रोग, समाज के प्रमुख व्यक्ति अथवा शिल्पकार की स्मृति भंग तक हो सकती है।
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*विप्र स्पृथ्वा तथा शीर्ष वा क्षत्रियस्तथा।। शाश्चोळंच द्रश्द पादों स्पृष्ट्व-समार भेत ।। 233नुष्टकेन वा लुर्यान मध्यनुलया तोव च । प्रदेशिग्याध्यपि तथा स्वर्ण रौप्यादिधातुना ॥ पगिना कुसुमेर्वापि तथा दध्यक्षत फलैः। शस्त्रेण शत्रुतो मृत्यु बन्धा लोहेन भरमाना ।। अर्धट तृणेजापि काष्ठादि लिखितेन च । नृपादभद तथा वक्र खण्हे शत्रुभयं भवेत ।।