________________
(देव शिल्प)
(२६५)
जिनेन्द्र प्रतिमाओं के विशीष लक्षण
जिन धर्म में चौबीस तीर्थकरों की प्रतिमाओं की आराधना पूजा की जाती है। सर्वप्रथम तीर्थंकर आदिनाथ स्वामी युग के प्रथम तीर्थंकर थे । वे आयु एवं काया में भी सबसे बड़े थे। अतएव कलाकार अपनी मनोभावनाओं को व्यक्त करने के लिए उनकी प्रतिमाओं को केशलतायुक्त अथवा जटायुक्त बनाते हैं। सर्वत्र आदिनाथ स्वामी की प्रतिमाए जटाजूट से युक्त प्राप्त होती है। इसमें किसी भी प्रकार की विपरीतता नहीं हैं। जिन प्राचीन जैन प्रतिमाओं में ऐसे जूट पाये जाते हैं उन्हें आदिनाथ प्रभु की प्रतिमा माना जाता हैं।
पार्श्वनाथ स्वामी पर कमट का उपसर्ग एवं धरणेन्द्र पद्मावती नाग देव-युगलों के द्वारा उस उपसर्ग का निवारण जैन परम्परा की अलौकिक घटना है। इसकी स्मृति के निमित्त ही पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा में मस्तक के ऊपर फणावली का निर्माण किया जाता हैं। इन फणों की संख्या सामान्यतः सात,नौ, ग्यारह होती हैं। अनेकों स्थलों पर पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमाएं १००८ अथवा १०८ कणावली युक्त भो बनाई जाती हैं । बीजापुर (कर्नाटक) के सहस्रफणी पार्श्वनाथ की प्रतिमा विश्वविख्यात है।
. सुपार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा भी फणावली युक्त बनाई जाती है। किन्तु सामान्यतः सुपार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा पांच फणों से युक्त होती हैं।
बाहुबली स्वामी की प्रतिमा केवल खड्गासन ही बनाई जाती है तथा इनके पांचों में लताएं बनाई जाती हैं। नीचे ब्राह्मी एवं सुन्दरी उनकी लताएं हटाती हुई प्रदर्शित की जाती हैं। श्रवणबेलगोल स्थित बाहुबली स्वामी की अलौकिक, सुन्दर विश्वविख्यात प्रतिमा के दर्शन कर सभी का मन शान्ति का अनुभव करता हैं।
भरत जी की प्रतिमा के नीचे नवनिधि, चौदह रत्न पार्श्व में दर्शाए जाते हैं। भरत जी को चक्रवर्ती पद की विभूतियां त्यागकर महाव्रत ग्रहण करने के एक अन्तर्मुहुर्त में ही केवलज्ञान प्राप्त हो गया था। अतएव तुरंत त्यागी हुई विभूतियों के आभास के लिए उन्हें उनकी प्रतिमा के नीचे ही दर्शाया जाता है।
इस प्रकार के लक्षणों से युक्त प्रतिमाएं सर्वत्र मिलती है तथा इन विशेष लक्षणों से उनकी वीतरागता में कोई अन्तर नहीं आता है। भक्तों के भाव पूजन में विशेष रुपेण लगते हैं अतएव ऐसे लक्षणों से युक्त प्रतिमाएं पूज्य ही हैं । इसमे किसी प्रकार सन्देह नहीं रखना चाहिये।