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(देव शिल्प
महावार मन्दिर के प्रांगण में प्रवेश के स्थान पर एक द्वार बनाया जाता है। तोर्थ क्षेत्रों में भी परिसर के प्रवेश स्थाः। पर द्वार बनाया जाता है। इसे महाद्वार की संज्ञा दी जाती है । यह द्वार प्रांगण के उत्तर , ईशान अथवा पूर्व दिशा में बनाना चाहिए। द्वार की स्थिति सम्मुख पथ के अनुरुप निम्न है - सड़क की दिशा
द्वार की स्थिति पूर्वी सड़क में
पूर्वी ईशान में अथवा पूर्व में उत्तरी सड़क में
उत्तरी ईशान में अथवा उत्तर में दक्षिणी सड़क में
दक्षिणी आग्नेय में पश्चिमी सड़क में
पश्चिमी वायव्य में
महाद्वार की रचना महाद्वार की रचना दो बड़े चौकोर स्तंभों से की जाती है। इन स्तंभों के ऊपर नगारखाना, निरीक्षण तथा सुन्दर कलात्मक तोरण या कमानी होती है। इस द्वार की ऊँचाई लगभग १५ फुट रखना चाहिए तथा चौड़ाई इतनी रखें कि भारी वाहन, रथ आसानी से प्रवेश कर सके ।
द्वार की रचना में पश्चिमी अथवा दक्षिणी भाग में दार रक्षक का कक्ष बनाया जाता है। द्वार के ऊपर सुंदर कलाकृति तथा ध्वज एवं कलश भी आरोहित किया जाता है। महाद्वार की भव्यता से भीतर स्थित मन्दिर की भव्यता का आभास होता है। इस द्वार में दो पल्लों का द्वार लगायें। द्वार भीतर की ओर खुलने वाला हो । द्वार चौकोर बनाना श्रेष्त है । महाद्वार के निर्माण में चौड़ाई और ऊंचाई का अनुपात प्रवेश द्वार की भांति ही समझना चाहिए।
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गवाक्ष युक्त प्रवेश द्वार