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गर्भगृह मन्दिर का प्राण है क्योंकि यहीं भगवान की प्रतिमा स्थापित की जाती है। गर्भगृह में प्रतिमा कितनी बड़ी बनानी चाहिये तथा प्रतिमा की स्थापना गर्भगृह में कहां करना चाहिये इसका ध्यान रखना आवश्यक है।
मन्दिरों के मण्डप क्रमों के अनुरुप अनेकों मन्दिरों के रेखा चित्र दृष्टव्य है जो विषय की जटिलता को समाप्त कर देते हैं।
मन्दिर के ऊपरी भाग ऊँची पर्वत की चोटी के आकार की आकृति का निर्माण किया जाता है। इसे शिखर कहते हैं। शिखर की शैलियों के आधार पर ही मन्दिरों की जातियों का विभाजन किया जाता है। शिखर की रचना झुकती हुई कला रेखाओं के आधार पर की जाती है। शिखर के ऊपरी भाग को ग्रीवा कहा जाता है। ग्रीवा के ऊपर आमलसार की स्थापना की जाती है। आमलसार एक बड़े चक्र के आकार की रचना होती है। इसके ऊपर घट की आकृति का कलश चढ़ाया जाता है। कलश उसी पदार्थ का होना चाहिये जिससे मन्दिर का निर्माण किया गया है। शोभा के लिए स्वर्ण का पत्र इसके ऊपर लगाया जाता है।
___ शिखर के ऊपरी भाग में शुकनासिका की स्थापना की जाती है जिस पर सिंह स्थापित किया जाता है। सुवर्ण पुरुष की स्थापना भी शिखर के ऊपरी भाग में की जाती है। सुवर्णपुरुष को प्रासाद का जीव माना जाता है। इसी प्रकरण में शिखर के अंगों का सचित्र विवेचन विषय को स्पष्ट करता है। श्रृंग, उरुश्रृंग, तिलक, कूट, क्रम आदि ऐसे शब्द हैं जो शिल्प शास्त्र में प्रचलित हैं किन्तु इनका अर्थ शब्द के स्थान पर भाव से लेना चाहिये। विभिन्न शैलियों के शिखरों के रेखा चित्र उसकी रचना समझने के लिये पर्याप्त आधार है।
__ शिखर पर ध्वजा का आरोहण किया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण है । ध्वजा से ही वास्तु की पहचान होती है। ध्वजा वस्त्र की बनाएं तथा ध्वजादंड लकड़ी का । ध्वजाधार की स्थिति भी सही रखें। बदरंग एवं फटी हुई ध्वजा परिवर्तित कर देना चाहिये । ध्वजा पर सर्वान्ह यक्ष की स्थापना अवश्यमेव करना चाहिये।
१.वेदी प्रतिमा प्रकरण इस प्रकरण में सर्वप्रथम प्रतिमा स्थापना करने हेतु वेदी के निर्माण हेतु कुछ महत्वपूर्ण निर्देश दिये गये हैं। प्रतिमा एवं वेदी दीवाल से चिपकाकर नहीं बनायें। वेदी पर भामंडल के स्थान पर यंत्र न लगायें तथा छत्र आदिसे सहित बनायें। वेदी में प्रतिमा की स्थित,द्वार से दृष्टि का स्थान तथा वेदी एवं गर्भगृह के अनुपात में प्रतिमा के आकार की गणना करना अत्यंत आवश्यक है। यक्ष यक्षिणी देवों की दिशा एवं पार्श्व का ध्यान रखना आवश्यक है। तीर्थकर प्रभु की प्रतिमा को ही मूलनायक बनायें। बाहुबली स्वामी आदि का स्वतंत्र मंदिर नहीं बनायें। यदि बनायें तो भी मूलनायक तीर्थंकर प्रभु ही रखें। यहां यह उल्लेखनीय है कि श्रवण बेलगोला में मूलनायक नेमिनाथ स्वामी हैं।
पीठिका पर भगवान की प्रतिमा का आसन होता है, वेदी पर नीचे कलाकृतियों से सजावट करना चाहिये । दस हाथ से छोटी प्रतिमाएं मंदिर में पूज्य है । पैतालीस हाथ से बड़ी प्रतिमा चौकी पर स्थापित की जाना चाहिये । ग्यारह अंगुल से छोटी प्रतिमाएं गृह मन्दिर में भी रख सकते हैं।