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(देव शिल्प
जिन मंदिरो से निकलने की विधि जिन देव के समक्ष स्तोत्र, मत्र , पाठ, पूजा आदेकर। जिस समय मांदर से निकाले उस रामय जिन देव को बाहर निकलते समय पीठ न दिखावें । सन्मुख ही पिछले पैर चलकर द्वार का उल्लंघन
करें। *
मंदिर में प्रदक्षिणा विधि का फल । जन्म जन्मांतर में किये गये पाप भी मन्दिर में प्रदक्षिणा देने से नष्ट हो जाते हैं। पाषाण निर्मित मेरु प्रासाद की प्रदक्षिणा का फल अत्यंत महान है। स्वर्ण के सुमेरु पर्वत की तीन प्रदक्षिणा करने का फल तथा मेरु प्रसाद की तीन प्रदक्षिणा का फल समान होता है। ** मन्दिर की प्रदक्षिणा देने का फल सौ वर्ष के उपवास के फल के समान होता है |#
प्रदक्षिणा विथि विभिन्न देवों निम्न संख्या में प्रदक्षिणा देना चाहिए :जिन देव को
तीन चण्डी देवी को सूर्य को
सात गणेश को
तीन विष्णु को
चार महादेव को
आधी प्रदक्षिणा ##
मानस्तंभ की वन्दना समवशरण के बाहर मानस्तंभ स्थित होते हैं। समवशरण के प्रतीक स्वरुप मन्दिर के समक्ष भी मानस्तंभ की रचना की जाती है। मानस्तंभ में चारों दिशाओं को मुख करके भगवान जिनेन्द्र की प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं। अतएव मानस्तंभ की वन्दना भी जिनेन्द्र प्रभु की वन्दना की भांति ही की जाती है।
भान रतंभ की वन्दना करते समय मानस्तंभ की प्रदक्षिणा देना चाहिये । पश्चात् मानस्तंभ में स्थित जिनेन्द्र प्रतिमाओं को नमस्कार करना चाहिये। & प्रदक्षिणा पूर्वक मानस्तंभ की वंदना करके उत्तम जिनेश्वर की भक्ति करने वाले उत्तम कुलीन धार्मिक जन समवशरण के भीतर प्रवेश करते हैं।
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*अग्रतो जिनदेवरय स्तोत्रमन्त्राईनादिकम् । कुन्नि दर्शवत् पृष्टं सम्मुखं दार लंघनम्।। प्रा. मं. २/३४
यानि कानिचपापाने जन्मांतरक्सानि च।तानि तानि विनश्यति प्रदक्षिणा पदे पदेशि 93/30 प्रतिष्ठा विधि प्रदक्षिणात्रय कार्य मेरु प्रदक्षिणायातम् । फलं स्याच्छैलराज्यस्थ मेरोः प्रदक्षिणाकृते।। प्रा. मं. ५/३५ #कलं प्रदक्षिणी कृत्य भुक्ते वर्ष शतस्य तु। प. पु. ३०/१८१ ## एक. चण्ड्या सप्तातेस्रो दद्याद् विनायके । चतस्रो वासुदेवस्य शिवस्यार्धा प्रदक्षिणा || प्रा. मं. २/२३ &प्रादक्षिण्येन वंदित्वा गानस्तंभ मतादिकः। उत्तमा प्रविशन्त्यन्त सत्तमाहित भक्त्यः ॥ हरि.पु. ५७/१७२