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________________ (देव शिल्प) २२७ जिन प्रतिमा प्रकरण जिन प्रतिभा का अर्थ है जिनेन्द्र प्रभु की प्रतिमा या मूर्ति जो कि उनके स्वरुप का आभास कराने के लिए स्फटिक, पाषाण, धातु, काष्ठ आदि द्रव्यों से निर्मित की जाती है। प्रतिमाएं कृत्रिम रूप से वीतराग प्रभु की छवि का आभारा कराकर हमें वीतराग प्रभु की स्तुति करने के लिए निमित्त कारण हैं। प्रतिमा अरिहन्तादि पांचों परमेष्ठियों की बनाई जाती है। प्रतिमा का निर्माण शास्त्रों के निर्देश के अनुरूप होना चाहिये । यदि शास्त्र प्रमाण के अनुकूल प्रतिमा नहीं बनाई जायेगी तो विभिन्न प्रकार के अनिष्ट होने का अवसर बना रहता है। अरिहन्त की प्रतिमा पूरे परिकर से सहित होना चाहिये। यक्षादि तथा अन्य समवशरण की विभूतियों से सहित होना चाहिये। सिद्ध प्रतिमा बिना परिकर की होती है। अरिहन्त प्रतिमा के साथ अष्ट प्रातिहार्य एवं मंगल द्रव्य अवश्य ही रहना चाहिये। सामान्यतः जिन प्रतिमाएं एक ही द्रव्य की पूर्ण वीतराग निर्मित होती हैं। किन्तु सुमेरु पर्वत के भद्रशाल वन में स्थित चार चैत्यालयों में रंगीन मणिगय प्रतिमा होती है। पाण्डुक वन में भी ऐसी ही प्रतिमाएं होती हैं। जिन प्रतिमा चूंकि अरिहंतादि परमेष्ठी की प्रतिकृति है अतः इसे जिन बिन्ब भी कहा जाता है। प्रतिमाओं को चैत्य नाम से सम्बोधित किया जाता है। पृथक रूप से नव देवताओं की कोटि में जिन चैत्य को देवता माना गया है। अतः न केवल परमेष्टो वरन् उनकी प्रतिमा भी पूज्य है तथा उनके रहने का स्थान अर्थात् चैत्यालय (जिनालय) भी पृथक देवता है तथा पूज्य है। जिनेन्द्र प्रतिमाओं का निर्माण एवं माप शास्त्रोक्त विधि से ही किया जाना चाहिये । प्रतिमा निर्माण के उपरांत जब तक पूर्ण विधान पूजन विधि तथा दि. जैन साधु / आचार्य के द्वारा सूरिमन्त्र से प्रतिमा की प्रतिष्ठा नहीं हो जाती तब तक प्रतिमा की पूजा नहीं की जाती। शिला परीक्षा आदि शास्त्रोक्त विधियों के द्वारा परीक्षित शिला से ही जिन प्रतिमा का निर्माण करना चाहिये । जिन प्रतिमा स्थापना निर्णय राशि मिलान का सुझाव जिन प्रतिमा का निर्माण प्रारम्भ करने से पूर्व पूज्य आचार्य परमेष्ठी एवं गुरुजनों रो आशीर्वादपूर्वक अनुमति लेना चाहिये । तदुपरांत उनसे बेदी एवं मन्दिर के आकार के अनुरूप मूर्ति का आकार, आसन, वर्ण तथा किन तीर्थंकर की प्रतिमा स्थापनकर्ता की राशि, नवांश तथा तीर्थंकर की राशि का मिलान एवं नगर की राशि का मिलान कर आचार्य से उपयुक्त दिशा निर्देश ग्रहण करना चाहिये। इसके उपरांत ही जिन प्रतिमा के निर्माण का समय, शिला परीक्षण एवं शिला लाने जाने का समय निर्धारित करना चाहिये। यह विशेष ध्यान रखें कि बिना गुरु आचार्य की अनुमति एवं आशीर्वाद के स्वतः जिन प्रतिमा एवं मन्दिर निर्माण का कार्य नहीं करना चाहिये ।
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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