SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (देव शिल्प स्तंभ प्रासाद/मन्दिर का आधार दीवार तथा स्तंभ पर निर्भर होता है। स्तंभ के बिना छत एवं शिखर का भार अकेले मण्डोवर पर आ जाता है । अतएव स्तंभ यथास्थान स्थापित किये जाते हैं। इनका प्रमाण के अनुरुप ही निर्माण किया जाना चाहिये। स्तंभके भेद आकृति की अपेक्षा मन्दिर में पांच प्रकार के स्तंभ स्थापित किये जाते हैं - १. चतुरस्र - चार कोने वाले स्तंभ को चतुरस्र स्तंभ कहते हैं। २. भद्रक - भद्रयुक्तस्तंभ को भद्रक कहते हैं। ३. वर्धमान - प्रतिरथ युक्त स्तंभ को वर्धमान कहत है। ४. अष्टास्र - आठ कोने वाला स्तंग अष्टास्र कहलाता है। ५. स्वस्तिक - आसन के भद्र तथा आठ कोने वाला स्तंभ स्वस्तिक कहलाता है। स्तंभ और मण्डोवर कासमन्वय स्तंभ एवं मण्डोवर के थरों में एक रुपता रखना आवश्यक है तभी मन्दिर के स्तंभ शोभायमान होंगे। ऐसा करने के लिये निम्न लिखित को समसूत्र में रखना अत्यंत आवश्यक है। - ५. मंडोवर का कुम्भ तथा स्तंभ की कुरम २. मंडोवर का उदगम तथा स्तंभ की मथाला ३. मंडोवर की भरणी तथा स्तंभ की भरणी ४. मंडोवर की मपोताली तथा स्तंभ की शिरावटी इसके अतिरिक्त पाट के पेटा भाग तक छज्जे का नमता हुआ भाग रखना __प्रा.म. ३/३४-३५ पूर्वार्द्ध. चाहिये। नाग - in स्तम्भशीर्ष परम
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy