SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (देव शिल्प समवशरणमन्दिर तीर्थंकर प्रभु को जब पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होती है तब उसके उपरान्त उनकी वाणी का प्रसार एक धर्मसभा के माध्यम से होता है. यह धर्ममा इन्द्र के आदेश ले कुबेर के द्वारा बनाई जाती है। वास्तु की यह एक अनूठी रचना होती है। इस धर्मसभा में देव, देवियां, मनुष्य, साधु, आर्यिकायें तथा पशु सभी जिनेन्द्र प्रभु की दिव्यवाणी को सुनते हैं। समवशरण की आकृति के अनुरुप ही जिनेन्द्र प्रभु का समवशरण मन्दिर बनाने की प्रथा है । वास्तविक समवशरण में आठ भूमियां तथा श्रोताओं के लिये बारह विभाग होते हैं। इन बारह विभागों में विभिन्न वर्ग के श्रोता बैठते हैं। समवशरण की रचना में चारों दिशाओं में मानस्तंभ होते हैं । मध्य में चारों दिशाओं में मुख करके जिनेन्द्र प्रभु की चार प्रतिमायें स्थापित की जाती हैं। इसका कारण यह है कि मूल समवशरण में जिनेन्द्र प्रभु यद्यपि एक ही तरफ पूर्व की ओर मुख करके बैठते हैं किन्तु अतिशय के कारण उनका मुख चारों तरफ दिखता है। सभी श्रोताओं को उनका दर्शन सीध में हो होता है। समवशरण का आकार गोल होता है। इनमें आठ भूमियां होती हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं : १. चैत्य प्रासाद भूमि २. खातिका भूमि ३. लता भूमि ४. उपवन भूमि ५. ध्वज भूमि ६. कल्प भूमि ७. भवन भूमि ८. श्री मण्डप भूमि बारह प्रकार के विभागों में श्रोताओं का विभाजन निम्नानुसार है - १. गणधर एवं मुनिगण २. कल्पचासी देवियां आर्यिका एवं श्राविकायें ४. ज्योतिषी देवियां ५. व्यन्तर देवियां ६. भवनवासी देवियां
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy