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________________ (देव शिल्प दिशा निर्धारण मन्दिर का निर्माण करने से पूर्व यह अत्यंत आवश्यक है कि निर्धारित भूमि पर दिशा निर्धारण कर लिया जाये । मन्दिर निमांग में प्रवेश-द्वार की दिशा, गर्भगृह की स्थिति तथा प्रतिमाओं की दृष्टेि इधर-- उधर अविवेक से नहीं रखी जा राकती, अन्यथा इसके गीषण विपरीत परिणाम होते हैं। अनुकूल दिशाओं में निर्माण किया गया मन्दिर न कोयला भव्यता एवं अतिशय रो सम्पन्न होता है बल्कि उपाराकों के मनोरथ पूर्ति का सशक्त निमित्त बनता है। दिशाओं का निर्धारण करने के लिये विभिन्न उपायों का आश्रय लिया जाता है। इसकी आधुनिक एवं प्राचीन दोनों विधियां हैं। आधुनिक विधि दिशा निर्धारण के लिये वर्तमान काल में घुबकीय सुई का प्रयोग किया जाता है। इसमें एक चुम्बकीय सुई अपनी धुरी पर धूमती रहती है। राई एक डायल पर स्थित होती है। डायल में उत्तर-दक्षिण एवं पूर्व-पश्चिम दिशाएं ९०-९० के कोण पर दिखाई जाती है। कुल ३६० में डायल विभाजित रहता है। चुम्बक का यह गुण होता है कि स्वतन्त्रतापूर्वक घूमने पर कुछ ही समय में वह पृथ्वी की चुम्बकीय धारा के रामानातर हो जाता है तथा सुई उत्तर दक्षिण दिशा में स्थिर हो जाती है। सुई के उत्तरी ध्रुव पर लाल निशान अथवा तीर का निशान लगा रहता है। इसे डायल को घुमाकर डायल के उत्तर दिशा में तीर पर लाया जाता है। इससे हमें सारी दिशाओं का ज्ञान हो जाता है। अच्छे किस्म के यन्त्रों में आजकल सुई को डायल में ही फिट कर देते हैं तथा पूरा डायल ही घूमकर स्थिर हो जाता है। किन्हीं किन्ही यन्त्रों में डायल पारे अथवा अय द्रव पर तैरता है। खुले मैदान, रेगिरतान, जंगल, नए स्थान, समुद्र, पर्वतादि किसी भी जगह यह यन्त्र क्षणमात्र में सही दिशा का ज्ञान करा देता है। प्राचीन विधि की अपेक्षा यही विधि सही, सरल एवं उपयुक्त है।
SR No.090130
Book TitleDevshilp
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnandi Maharaj
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages501
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size9 MB
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