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(५८) तलघर तलघर का तात्पर्य मुख्य धरातल के नीचे खुदाई करके कमरे इत्यादि के लिये स्थान बनाना है। वर्तमान युग में कम भूमि क्षेत्र में अधिक क्षेत्रफल निकालने के लिये बहुमंजिली निर्माण के अतिरिक्त नीचे तलघर बनाये जाते हैं। प्राचीन जिन मन्दिरों में विधर्मियों के आक्रमण से रक्षा के निमित्त ये तलघर बनाये जाते थे ताकि संकट के समय जिन प्रतिमाओं को संरक्षित किया जा सके। मध्यकालीन समय में इसी पद्धति के कारण जिन संस्कृति को बचाया जा सका। इसी कारण आज भी यत्र तत्र भूमि खनन के समय प्राचीन जिन बिम्ब तथा समूचे अथवा भग्न जिनालय मिलते रहते हैं।
तलघर का निर्माण अत्यंत आवश्यक होने पर ही करना चाहिये। सिर्फ आंधक जगह निकालने के लिये निरुद्देश्य तलधर नहीं बनाना चाहिये। यदि अपरिहार्य स्थिति में तलघर बनाना ही इष्ट होवे तो केवल निर्धारित दिशाओं में बनाना चाहिये। तलघर बनाने से यदि बचा जा सके तो बचना वाहिये।
तलघर बनाते समयपालनीय निर्देश १. तलघर केवल ईशान दिशा में बनायें। यदि कुछ दीर्घाकार अपेक्षित हो तो उत्तर या पूर्व तक बनायें। २. किसी भी स्थिति में आनेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य एवं मध्य में तलघर नहीं बनायें। ३. तलधर का आकार आयताकार अथवा वर्गाकार हो होना चाहिये। ४. कोई भी तलाधर ऊपर की वेदियों के ठोक नीचे नहीं आना चाहिये। ५. तलघर के फर्श के धरातल पर ढलान भी केवल ईशान, पूर्व या उत्तर की ओर ही आना चाहिये। ६. किसी भी स्थिति में पूरे जिनालय के नोचे तलघर नहीं बनाना चाहिये। (७.. तलघर में उतरने की सीढ़ियों का उतार दक्षिण से उत्तर अथवा पश्चिम से पूर्व होना चाहिये। ८. यथा सम्भव दक्षिणो दोवाल की तरफ से सीढ़ियां बनाना चाहिये। ९. ध्यानप्रिय साधु एवं श्रावक वहां पर स्थिर चित्त होकर ध्यान कर सकें, इस हेतु समुचित प्रकाश एवं वायु की व्यवस्था रखें। १०. मन्दिर के प्रमुख प्रवेश के नीचे तलघर नहीं बनाना चाहिये।